कुछ साल पहले मुझसे मेरे एक मित्र ने सवाल किया, ”तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की?” सच कहूं तो मुझे इस तरह के सवालों से बहुत कोफ्त होती है, क्योंकि मेरा मानना है शादी करना या ना करना किसी भी इंसान की ज़िंदगी का बेहद निजी मसला है। उसे मर्ज़ी है तो करे और अगर मर्ज़ी नहीं है, तो ना करे। इसलिए मैंने अपने मित्र को टालने के लिहाज़ से कह दिया, ”बस कोई सयूटेबल च्वाइस मिला नहीं, तो नही की।”
इस पर मित्र का दूसरा सवाल था, ”एक बात बताओ क्या कभी तुम्हारा मन नहीं होता सेक्स करने का?” मुझे अचानक से मित्र द्वारा यह प्रश्न पूछने पर थोड़ी हैरानी हुई, क्योंकि इससे पहले हमारे बीच कभी इन मुद्दों पर इतनी बेबाकी से चर्चा नहीं हुई थी। (हां, शायद हमारे सोशल टैबूज़ की वजह से) मगर बुरा नहीं लगा।
मेरा मानना है कि दुनिया में मित्रता ही एक ऐसा रिश्ता होता है, जिसमें आप खुलकर किसी भी मुद्दे पर बातचीत कर सकते हैं, वरना बाकी हर रिश्ते के साथ कुछ-ना-कुछ सीमाएं होती हैं। वैसे भी इस तरह के मुद्दों के विषय में स्त्री-पुरुष की सीमाओं से परे एक स्वस्थ परिचर्चा होनी बेहद ज़रूरी है।
यही सोचकर मैंने अपना मत रखा, ”देखो दोस्त शादी-ब्याह, धर्म-अधर्म, सामाजिक नियमों या परंपराओं में मेरा बहुत ज़्यादा कुछ यकीन नहीं है। इसलिए अगर तुम यह जानना चाहते हो कि मैंने अब तक शादी क्यों नहीं की, तो मैंने इसलिए नहीं की, क्योंकि लोगों के अनुसार हर इंसान को शादी करनी चाहिए।”
मैंने आगे कहा, “मगर मेरे लिए शादी सामाजिक मान्यताओं के दायरे में रहते हुए शारीरिक सुख पाने का ज़रिया मात्र नहीं है, बल्कि मेरे लिए यह मानसिक सुख का ज़रिया भी होना ज़रूरी है। शारीरिक सुख तो एक बार को बाज़ार में पैसे खर्च करके भी मिल सकता है मगर मानवीय संबंधों का असली महत्व तभी है, जब आपको ये दोनों ही चीज़ें एक ही इन्सान से मिलें, तब इनकी गरिमा भी बनी रहती है।”
मैंने कई ऐसे पति-पत्नियों को देखा है, जो एक-दूसरे के साथ केवल इसलिए रह रहे हैं, क्योंकि समाज द्वारा मान्यता प्राप्त विधि-विधानों के अनुसार उन्हें मरते दम तक एक-दूसरे के साथ रहना चाहिए। भले ही उनके बीच के सारे एहसास कब के मर चुके हों। इस तरह के रिश्ते में पति-पत्नी शारीरिक तौर पर भले साथ हों लेकिन उनका मन कहीं और होता है। कुछ वैसी ही जैसी किसी ग्राहक और वेश्या के बीच की स्थिति होती है।
दोनों मात्र अपनी-अपनी ज़रूरतों के लिए एक-दूसरे के साथ होते हैं। उन्हें देखकर ऐसा लगता है मानो सामाजिक संस्कार के नाम पर दो लोगों को एक ऐसे खूंटे से बांध दिया गया है, जहां एक साथ जीवन बसर करना उनकी खुशी नहीं, मजबूरी है।
मेरा मानना है कि कोई भी पति अपनी पत्नी के शरीर पर मात्र इसलिए हक नहीं जमा सकता कि उसने उससे विवाह किया है। इसी तरह कोई भी पत्नी अपने पति की हर बात सिर्फ इसलिए नहीं मान सकती कि वह उसका पति है। एक खुशहाल परिवार की नींव के लिए बेहद ज़रूरी है कि पति-पत्नी दोनों के लिए एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करें।ज़बरदस्ती का संबंध ना ही शारीरिक सुख दे सकता है और ना ही मानसिक स्तर पर आपसी रिश्तों को मज़बूती प्रदान कर सकता है।
दरअसल, हमारे तथाकथित ‘सभ्य समाज’ की प्रॉब्लम यह है कि इसने सेक्स को हमेशा शारीरिक सुख का साधन माना है, जबकि सेक्स की प्रक्रिया तो शारीरिक व मानसिक अभिव्यक्ति का कुदरती माध्यम है। इसकी उपज शरीर से नहीं मन-मस्तिष्क से होती है, शरीर तो मात्र इसकी पूर्ति का माध्यम है। रिश्ते का मन-मस्तिष्क जितना स्वस्थ्य और परिपक्व होगा, उसकी सेक्शुअल फीलिंग्स भी उतनी ही आनंदमय होगी।
सेक्स प्रक्रिया में पुरुष को आनंद और स्त्री को चरमसुख प्राप्त होना उनके सम्पूर्ण वैवाहिक जीवन का एक रोचक व ज़रूरी हिस्सा है। सेक्सोलॉजिस्ट भी मानते हैं कि सेक्स का आनंद प्राप्त करने के लिए सबसे महत्तवपूर्ण है इसके प्रति मन में कोई रूढिवादी विचार या भ्रांति नहीं रखना, क्योंकि इसका सीधा संबंध व्यक्ति के मन-मस्तिष्क से होता है। यदि सेक्स सुख व आनंद की अनुभूति मन मस्तिष्क को अनुभव ना हो, तो यह शारीरिक प्रक्रिया स्त्री-पुरुष दोनों के लिए ही कष्टप्रद व तनावपूर्ण बन जाती है।
शायद यही वजह है कि ऐसे रिश्ते कुछ वक्त के बाद ज़िंदगी पर एक बोझ बनकर रह जाते हैं, जिन्हें जीया नहीं जा सकता सिर्फ ढोया जा सकता है और मैं अपने रिश्तों को जीने में यकीन रखती हूं, ढोने में नहीं! बिना शादी-ब्याह की औपचारिकता निभाए भी अगर दो लोग एक-दूसरे के प्रति गहरा विश्वास और समर्पण महसूस करते हों, तो दुनिया में उस रिश्ते से बढ़कर दूसरा कोई खूबसूरत रिश्ता हो ही नहीं सकता।’
अब मेरी इस बात पर मित्र अवाक होकर मुझे देख रहा था। मैंने कहा, ”उम्मीद है अब तुम्हें तुम्हारे सवाल का जबाव मिल गया होगा?” मेरी इस बात पर पर अब वो हल्के से मुस्कुरा दिया था।
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