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“क्यों मैं लालू प्रसाद यादव को बिहार का सबसे बड़ा करिश्माई नेता मानता हूं”

lalu yadav

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एक बात तो मैं निःसंदेह कह सकता हूं कि लालू प्रसाद यादव बिहार के सबसे बड़े करिश्माई लीडर हैं। बिहार के 243 विधानसभा में से किसी भी सीट से अगर किसी भी प्रत्याशी को राजद का टिकट मिल जाता है, तो मतलब 30-35 हज़ार वोट तो लालू यादव और पार्टी के नाम पर ही उस प्रत्याशी को मिल जाता है।

लालू यादव: एक नज़र

लालू यादव की पार्टी 15 साल से सत्ता से बाहर है लेकिन उसके बावजूद लालू यादव की लोकप्रियता आज भी जनता के बीच बनी हुई है, जबकि जिस मंडल आंदोलन की राजनीति से लालू यादव की राजनीति का उदय होता है और 1990 में सत्ता का परिवर्तन हुआ और जब यह परिवर्तन हो रहा था तब लालू यादव के साथ नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान भी थे लेकिन सबसे पहले 1993 में नीतीश कुमार अलग होकर जॉर्ज फर्नांडीस की अगुवाई में समता पार्टी का गठन किया फिर 1997 में लालू यादव का साथ शरद यादव और रामविलास पासवान ने भी छोड़ दिया। 

लेकिन आप अगर लालू यादव की पार्टी का वोट शेयर प्रतिशत देखेंगे, तो 2000 में सबके अलग होने के बावजूद काँग्रेस के समर्थन से नीतीश कुमार की 7 दिनों की सरकार गिराकर बिहार की सत्ता बचाने में कामयाब हो गए। 

2005 फरवरी के चुनाव में भी लालू यादव की पार्टी अकेले चुनाव लड़ी, जिसमें जहां एक तरफ लालू यादव का मुकाबला जदयू-भाजपा गठबंधन से हो रहा था, तो दूसरी तरफ काँग्रेस-लोजपा गठबंधन की भी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था और साथ में 15 साल की ज़बरदस्त सत्ता-विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा था लेकिन जब नतीजे आए तो लालू यादव की पार्टी राजद अकेले लगभग 25% वोट शेयर के साथ 75 सीट जीतने में कामयाब हुई। 

जब बिहार में लगा राष्ट्रपति शासन

2005 फरवरी विधानसभा चुनाव में किसी दल और गठबंधन को बहुमत नहीं मिला और बिहार में राष्ट्रपति शासन लग गया। राष्ट्रपति शासन के बाद 2005 अक्तूबर में फिर से विधानसभा चुनाव हुए इस चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन को बहुमत प्राप्त हो गया और नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब हुए। लेकिन इस चुनाव में  लालू यादव की पार्टी को पिछले चुनाव के मुकाबले 23.5% प्रतिशत वोट के साथ 54 सीटों पर कामयाबी मिली। 

2010 विधानसभा चुनाव में लालू यादव को काँग्रेस से अलग होकर चुनाव लड़ना महंगा साबित हुआ। इस चुनाव में जदयू-भाजपा गठबंधन को 243 सदस्यों वाले विधानसभा में 206 सीटों पर कामयाबी मिली। राबड़ी देवी दो सीटों से चुनाव लड़ी और दोनों सीटों पर हार का सामना करना पड़ा। 

लालू यादव की पार्टी अब तक के इतिहास में सबसे कम केवल 19% प्रतिशत वोट शेयर के साथ 22 सीट जीतने में कामयाब हो पाई। इस नतीजे को लोगों ने अलग-अलग नज़र से देखा, जहां एक राय निकलकर आती है कि यह चुनाव नीतीश कुमार के विकास का नतीजा था, तो दूसरी तरफ एक और राय है कि काँग्रेस के अलग लड़ने से राजद के वोटों का बिखराव हुआ, जिस कारण जदयू-भाजपा को 206 सीटों पर कामयाबी मिली। 

भाजपा ने अन्ना आंदोलन का भरपूर लाभ उठाया

2014 आने से पहले ही देश की राजनीति में परिवर्तन हुआ। अन्ना हजारे काँग्रेस सरकार को भ्रष्टाचार और लोकपाल के मामलों पर दिल्ली में आंदोलन के ज़रिये घेरने का काम शुरू कर चुके थे और इसका सबसे अधिक लाभ किसी को अगर मिला तो वह थी भाजपा।

एक राय यह भी है कि लोकपाल आंदोलन के मुखौटे के रूप में भले अन्ना हजारे थे लेकिन उस आंदोलन के पीछे भाजपा का बड़ा हांथ था और उस आंदोलन ने देश के अंदर आम जनता के मन में यह बात तो स्पष्ट रूप से स्थापित कर दिया कि काँग्रेस की सरकार ने घोटाले किए हैं।

भले इसमें उतनी सत्यता नहीं थी फिर भाजपा ने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव समिति का अध्यक्ष घोषित कर दिया, जिसको लेकर नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो गए और अकेले लोकसभा चुनाव में जाने का ऐलान कर दिया, जिसका नतीजा 2014 के लोकसभा आम चुनाव में बिहार में जहां एक तरफ राजद, काँग्रेस और एनसीपी का गठबंधन हुआ, तो वहीं एनडीए में भाजपा, लोजपा और उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा थी और नीतीश कुमार सीपीआई के साथ चुनाव लड़े।

जब नतीजे आए तो एनडीए को 31 सीटों पर कामयाबी मिली। क्रमशः भाजपा- 22, लोजपा- 6 और रालोसपा को 3 सीटें मिलीं। वहीं, यूपीए को 9 सीटों पर कामयाबी मिली। क्रमशः राजद-4, काँग्रेस-2 और एनसीपी-1 और जदयू अकेले चुनाव लड़ी और केवल 2 सीटों पर संतोष करना पड़ा।

2015 का चुनाव एक बड़ा परिवर्तन

2015 विधानसभा चुनाव से पहले बिहार में एक बड़ा राजनीतिक परिवर्तन देखने को मिला, जिसमें एक नया गठबंधन बना, जिसका नाम महागठबंधन पड़ा। इसमें (राजद, जदयू और काँग्रेस) थी और सर्वसम्मति से चुनाव से पहले ही नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया गया। 

इस चुनाव में नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार ज़रूर थे लेकिन चुनाव के समय लड़ाई देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लालू यादव के बीच सवाल-जवाब में तब्दील हो गई। लालू यादव ने अपने चक्रव्यूह में नरेंद्र मोदी को पूर्ण रूप से फंसा लिया और लालू यादव जो हवा बनाने में माहिर हैं, वो जैसा चाहते थे सब कुछ वैसा ही होता गया।

इस चुनाव में एक महत्वपूर्ण चीज़ देखने को मिली। नीतीश कुमार कहीं पर भी नरेंद्र मोदी और अमित शाह को लेकर कठोर बयान देने से बचते रहे और नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि लालू यादव बिहार के राजनीति के असल किंग मेकर हैं।

20 महीने के बाद नीतीश कुमार ने महागठबंधन से अलग होकर भाजपा के साथ मिलकर रातोंरात सरकार बना लिया। शायद यही कारण था कि नीतीश कुमार 2015 विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी और अमित शाह को लेकर पूरे चुनाव नरम दिखाई दिए। इस पर अलग-अलग राय सामने आती है लेकिन बिहार का वह मतदाता जो भाजपा के विरोध में नीतीश कुमार को वोट दिया था, उसके अंदर नीतीश कुमार को लेकर भरोसा कमज़ोर हुआ है और नीतीश कुमार की विश्वसनीयता काफी कम हुई है।

2005 में मुस्लिम मतदाताओं के बीच नीतीश कुमार को लेकर भाजपा के साथ होने के कारण संकोच की स्थिति थी। उस संकोच को नीतीश कुमार कम करने में काफी हद तक कामयाब हुए थे और मुसलमानों के बीच नीतीश कुमार को लेकर कंफ्यूज़न काफी हद तक दूर हुआ था। मुसलमानों का काफी समर्थन नीतीश कुमार के साथ आया था लेकिन नागरिकता संशोधन विधेयक, तीन तलाक और कश्मीर से 370 और 35-A जैसे विधेयकों पर नीतीश कुमार का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन ने उनको को लेकर मुस्लिम समाज के अंदर फिर से सवालिया निशान खड़ा कर दिया है।

इसका असर विधानसभा चुनाव में दिखाई दे रहा है। कुछ मुसलमान नीतीश कुमार को पसंद करते हैं लेकिन वोट डालने को लेकर डर रहे हैं। यह भी स्पष्ट है कि नीतीश कुमार को आज भी मुसलमानों का समर्थन है लेकिन पहले जितना नहीं। पिछले 15 साल से लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल 20 महीनों की महागठबंधन सरकार को हटा दें तो लगातार सत्ता से बाहर है लेकिन सत्ता में ना होने के बावजूद लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का वोट शेयर प्रतिशत लगातार बना हुआ है। भले 2019 लोकसभा आम चुनाव में राजद एक भी सीट पर खाता नहीं खोल पाई, इसका कारण जो भी हो लेकिन यह राजद के इतिहास में पहली बार हुआ है जब राजद की नुमाइंदगी लोकसभा शून्य है। 

अगर आप बिहार की राजनीति में पिछले 3-4 विधानसभा चुनावों और 3 लोकसभा चुनावों में राजद का वोट शेयर प्रतिशत देखेंगे, तो उससे समझ आता है कि लालू यादव की पकड़ आज भी समाज के जड़ तक है। आज भी जब आप विशेषकर मुस्लिम और यादवों से बात करेंगे, तो वे बिना कुछ सोचे सीधे लालू यादव को अपना नेता मानते हैं।

MY समीकरण (M- मुस्लिम, Y- यादव) की राजनीति को लालू यादव ने कई चुनाव में साबित भी कर दिया है। इसी वजह से हम यह कह सकते हैं कि आज भी लालू यादव बिहार के मतदाताओं से डायरेक्ट कनेक्शन रखते हैं। इस मामले में किसी और नेता का लालू यादव की जगह ले पाना असंभव है।

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