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“एक बेटी ने अपना पिता खोया है, एक पूरा परिवार उजड़ा है, फिर अर्णब की गिरफ्तारी क्यों ना हो?”

माफ करिएगा मगर मैं रवीश कुमार से लेकर उन सभी चैनल और बड़े पत्रकारों से सहमत नहीं हूं, जो यह बता रहे हैं कि अर्णब गोस्वामी के साथ मुम्बई पुलिस ने ज़्यादती की है या उनके साथ बदले की भावना से कार्रवाई हो रही है ।

सिर्फ पिछले 6 महीने की ही अर्णब की एंकरिंग उठा लें तो उनके मन में कितना ज़हर है, यह साफ दिख जाता है और वो किस तरह समाज में दंगा-फसाद करवाना चाहते हैं, एक समुदाय विशेष के लोगों के खिलाफ माहौल बनाना चाहते हैं, वह भी दिख जाता है।

बड़े पत्रकार क्या चाहते हैं कि अर्णब की एंकरिंग की वजह से लोगों को मारा जाता रहे, उन्हें लिंच करा जाए और अर्णब पर कोई एक्शन भी ना हो?

अर्णब एक क्रिमिनल हैं, इससे ज़्यादा कुछ भी नहीं। रही बात जिस कारण की वजह से अर्णब को गिरफ्तार किया गया है, वह सबको भली-भांति पता है। एक बेटी ने अपना पिता खोया है, एक पूरा परिवार उजड़ा है। सवाल यह है कि 2018 में पीड़ित परिवार पर दबाव क्यों बनाया गया? 2018 में अर्णब को बचाने की कोशिश क्यों की गई? क्या अर्णब कानून से बड़े हैं या बड़े पत्रकारों को लगता है कि आम आदमी और एक चैनल के मालिक के लिए कानून अलग होता है?

बड़े पत्रकार आवाज़ ज़रूर उठाएं मगर उन राजनीतिक कैदियों के लिए, जिनके लिए कोई बात भी नहीं करता। अर्णब के मामले में टिप्पणी देकर अगर आपको लगता है कि आप बहुत फेयर और बैलेंस्ड काम कर रहे हैं, तो आप इसका बिल्कुल उल्टा कर रहे हैं।

आप एक ऐसे भयानक क्रिमिनल का साथ दे रहे हैं, जो रोज़ अपने स्टूडियो में बैठकर लोगों की ज़िंदगियां तबाह कर रहा था और समाज में हिंसा फैलाना चाहता था। जेल में अर्णब को आत्म मंथन करने का मौका मिलेगा, यही उनके लिए भी बेहतर है।

आप सब अपना तर्क बुज़ुर्ग वरवरा राव या गरीबों की मदद के लिए अमेरिका की सिटीज़नशिप त्यागकर भारत आई सुधा भरद्वाज के लिए रखिए। बाकी कल खालिद सैफी को बेल देते समय जज ने बोला है कि उनके खिलाफ इल्ज़ाम पुख्ता नहीं हैं और ऐसा लगता है जैसे बदले की भावना से कार्रवाई हुई है। बड़े पत्रकार उस पर भी कुछ बोलें। पहले दिन से मेरा मत एक ही है कि अर्णब गोस्वामी की गिरफ्तारी बहुत पहले ही हो जानी चाहिए थी।

रही बात पुलिस के रव्वये की, तो काश जितनी शालीन मुम्बई पुलिस अर्णब के साथ थी, उनती ही शालीन देशभर की पुलिस गरीबों किसानों और स्टूडेंट्स के साथ भी हो जाए तो ना ही किसी स्टूडेंट की आंख फूटेगी और ना ही किसी रेढ़ी वाले के सब्ज़ी के ठेले को पलटाया जाएगा।

किसी किसान को भी वॉटर कैनन का सामना नहीं करना पड़ेगा। बीस मिनट का पूरा वीडियो मैंने भी देखा है। मुम्बई पुलिस हर तरह से शालीन थी मगर अर्णब और उनका परिवार लगातार पुलिस को उकसा रहा था। अच्छा हुआ अर्णब और उनके परिवार की जगह जामिया के स्टूडेंट्स नहीं थे, वरना अभी सब हॉस्पिटल में पड़े होते अपने टूटे हाथ-पैरों के साथ।

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