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“क्या बिहार चुनाव के वक्त नेताओं को कोरोना नज़र नहीं आया?”

बिहार चुनाव के शोर शराबे व बड़ी-बड़ी रैलियों के साथ सम्पन्न हो जाने के बाद अब फिर से मीडिया व नेताओं को कोरोना नज़र आने लगा है। कोरोना एक महामारी नहीं, मानो बिजली का स्विच हो गया हो। जब चाहे उसे ऑफ कर दो फिर जब चाहे ऑन कर दो।

जब ट्रम्प का नमस्ते इंडिया जैसा मेगाइवेंट होना था, देश-विदेश से लाखों लोग एक जगह पर इकट्ठा होने थे, तब शायद मोदी जी ने कोरोना को सुला दिया या फिर उसके दांत व नाखून निकाल दिए होंगे। मध्यप्रदेश में सरकार उल्टा-पल्टी करने के दौरान भी कोरोना की तटस्थ भूमिका रही।

शुरुआत में एक तिहाई कोरोना तबलीगियों की दाढ़ी व टोपी पर ही उलझे पाए गए

फिर मार्च के तीसरे हफ्ते में कोरोना पहली बार भारत में ज़ोर-शोर से ऐक्टिव किया गया। 100-200-400 मामले मीडिया की सुर्खियां बनीं। प्रधानमंत्री इस बीच जनता कर्फ्यू लेकर सामने आए। उसके दो दिन बाद ही आनन-फानन में 21 दिनों का सम्पूर्ण लॉकडाउन घोषित कर दिया गया।

उस बीच शुरुआत में कोरोना को आंशिक रूप से सक्रिय किया गया। मंदिरों व तीर्थस्थलों में अटके हुए लोगों के बीच कोरोना को जाने की मनाही थी लेकिन तबलीगी जमात पर उसे पूरी ताकत के साथ टूट पड़ना था। देशभर के एक तिहाई कोरोना तबलीगियों की दाढ़ी व टोपी पर ही उलझे पाए गए।

प्रवासी मज़दूरों की वापसी के जत्थों का कोरोना शायद कुछ अलग मिज़ाज का था। वह पुलिस के डंडों से मर जाता रहा होगा। यही नहीं, शायद सरकार के पास इस बात की खुफिया जानकारी भी थी कि ट्रेनों व बसों से मज़दूरों को वापस भेजने पर उनका वाला कोरोना पगला जाएगा। वह ना केवल बहुत तेज़ी से फैल जाएगा, बल्कि ट्रेनों का रास्ता भी भटका देगा। शायद सरकार के पास मज़दूरों के कोरोना की कमज़ोरी की भी जानकारी थी।

हो ना हो, उन मज़दूरों के शरीरों को भूखा-प्यासा रखकर हज़ारों मील पैदल चलाकर उनके शरीर में घुसे संभावित कोरोना को मज़दूरों की मौत मारना ही सरकार का लक्ष्य था।

इसी बीच एक के बाद एक लॉकडाउन लगे, शायद तब तक कोरोना से भी मोदी जी ने तू-तड़ाक वाली दोस्ती गांठ ली थी। इसलिए शायद वह उनके कान में बोलकर गया हो कि मुझसे निपटने के लिए मेडिकल सुविधाओं को बढ़ाने के बजाय जन विरोधी, मज़दूर विरोधी बिल पास करना ही आपदा में अवसर होगा। यही रास्ता है, तेज़ी से आगे बढ़ो।

लॉकडाउन में ढील देते ही कोरोना को शराबियों के बीच घुलने-मिलने दिया गया। शायद इसके पीछे भी कोई मास्टरस्ट्रोक वाला आइडिया काम कर रहा हो, जिसके तहत कोरोना को शराबियों के शरीर में टल्ली कर देना रहा हो।

कोरोना ने मीडिया व सरकारों को मादक अदाओं से मोहित कर दिया

हैरानी की बात है कि यह तरकीब काफी हद तक कारगर भी दिखी। इसके बाद कोरोना संक्रमितों की संख्या भले ही बढ़ी हो, मरने वालों की संख्या भी भले बढ़ी हो मगर इस शराबी हो चुके कोरोना ने हमारे मीडियाकर्मियों व सरकारों को अपने मादक अदाओं से मोहित कर दिया। अब सबको यह एक भला वायरस नज़र आने लगा, इससे मरने वालों की चिंता के बजाय इसके द्वारा संक्रमित करके भी ज़िंदा छोड़ दिए गए लोग ज़्यादा नज़र आने लगे।

अब जब सब मुख्य काम निपट गए तब मौका पाकर सरकार ने फिर से कोरोना को ज़ंजीर से खोल दिया। अचानक से मामले भी ज़्यादा नज़र आने लगे। मरने वालों की संख्या भी अचानक बढ़ने लगी, मास्क ना पहनने पर भारी भरकम वसूली होने लगी। इस बार शायद कोरोना के साथ सरकारों की डील हुई है कि सामाजिक दूरी वाले रूल को रद्द करते हैं। अब केवल मास्क-मास्क खेलेंगे, इसलिए बाज़ारों, गाड़ियों, राजनीतिक कार्यक्रमों में कितनी भीड़ जा रही है चिंता की बात नहीं है, बस मास्क है ज़रूरी।

मोदी जी ने कोरोना से दोस्ती की है तो कोरोना भला क्यों ना अपनी दोस्ती का फ़र्ज़ अदा करता। उसने मीडिया, बुद्धिजीवियों के दिमाग से यह विस्मृत कर दिया कि कोरोना फैलाने के लिए असल दोषी कौन है? किसने समय रहते विदेशों से विमानों का आगमन रोकने या उन यात्रियों को क्वारंटीन करवाने का काम नहीं किया? कौन लोग थे जो गौमूत्र, यज्ञों, दियों व अन्य देसी नुस्खों से कोरोना को भगाने का भ्रम फैला रहे थे? वे कौन लोग थे जो समय रहते मास्क, टेस्टिंग किट, क्वारंटीन सेंटर तैयार नहीं किए?

अब तो लगने लगा है कि यह कोरोना केवल जनता को दोषी ठहराने और ठिकाने लगाने के लिए आया है। सरकार के सारे दोष तो बस मानवीय भूल भर हैं। हो ना हो इस कोरोना ने भी फांसिवादी घुट्टी पी ली हो।

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