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“क्यों हमें मौजूदा वक्त में बापू की पत्रकारिता की ओर लौटने की ज़रूरत है”

गाँधी

गाँधी

लाॅक डाउन के कारण देश के मीडिया उद्योग की भी कमर टूट  गई है। ऐसे में अन्य उद्योगों की तरह मीडिया को भी विशेष पैकेज देने की सरकार से उठ रही मांग के बीच लोगों को महात्मा गांधी की पत्रकारिता याद आ रही हैै। जिन्होंने अपने अखबारों के लिए कभी विज्ञापन तक नहीं लिए।

जब इंडियन ओपिनियन अखबार का संपादन बापू ने सम्भाला था

पढ़ाई पूरी करने के बाद महात्मा गांधी वकालत की प्रैक्टिस के लिए दक्षिण अफ्रीका बस गये थे। उन दिनों रंगभेद नीति के प्रतिकार की वजह से दक्षिण अफ्रीका के भारतीय समुदाय में  उनकी चर्चा होने लगी थी। इसी दौरान दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों ने उनसे इंडियन ओपिनियन अखबार का संपादन संभालने को कहा। जिसे भारतीय समुदाय ने अपनी अस्मिता को मज़बूत करने के लिए निकाला था।

यह अखबार घाटे में निकला, जिसे विज्ञापन मिलने के बावजूद महात्मा गांधी को इसमें अपनी जेब से पैसा लगाना पड़ा। इसके बावजूद महात्मा गांधी ने अखबार को लेकर आश्चर्यजनक फैसला किया कि वह इसमें कोई विज्ञापन नहीं छापेंगे। क्योंकि वे जिन विचारों को अपने समाज के साथ साझा करना चाहते हैं विज्ञापन छापने से उनके लिए जगह घटानी पड़ती है।

अफ्रीका में आज़माई गई पत्रकारिता को बापू ने भारत में भी लागू किया

विचारों की इस पत्रकारिता को गांधी जी ने स्वदेश वापसी के बाद भारत में भी आगे बढ़ाया। उन्होंने यहां भी अपने अखबारों में विज्ञापन न छापने का व्रत बरकरार रखा।

जो लोग मीडिया को पश्चिम के प्रभाव मेें सूचना का व्यापार समझते हैं उन्हें बताना चाहता हूं कि महात्मा गांधी के अखबार उनके विचारों के कारण विज्ञापन न छापने के बावजूद फायदे में चलते थे। जब महात्मा गांधी जेल चले गये थे तो उनके अखबार का प्रसार गर्त में चला गया था। 

भारत में लोग मीडिया से क्या चाहते हैं?

सोचने वाली बात है कि भारत में लोग मीडिया से क्या चाहते हैं विचार या समाचारों का मनोरंजन? भारतीय पत्रकारिता की इसी तासीर को समझने के कारण आज़ादी के बाद के कुछ दशकों तक नामी अखबार कम्पनियों में विद्वानों की सम्पादक के रूप में नियुक्ति की परम्परा कायम रही।

ताकि अखबार में वैचारिक मज़बूती दिख सके। इन सम्पादकों से अखबार मालिक विज्ञापन मांगने या सरकार से उनके धन्धे के काम कराने की अपेक्षा बिल्कुल नहीं रखता था।

बाद में पाश्चात्य अनुकरण के तहत मीड़िया को जब सूचना के व्यापार के रूप में ढाल दिया गया तो संम्पादक से लेकर रिपोर्टर तक लाइज़निग की क्षमता देखकर बनाये जाने लगे। मीडिया में वैचारिक पक्ष गौण हो जाने से उसकी गरिमा छिन्न-भिन्न हो गई और इसका अर्थ भी बड़ी दुकानदारी से ज़्यादा नहीं रह गया है।

कायदे से कारपोरेट सेक्टर के दायरे से मीडिया को भारत में बाहर होना चाहिए, ताकि उसका पुराना स्वरूप बहाल हो सके। समाज की वैचारिक चेतना के सतत विकास के लिए मीडिया की ज़रूरत भारत में मूल रूप से महसूस की जाती है।

अत: उसे इसी पटरी पर लाना होगा, क्योंकि 24 घंटे की न्यूज की कोई प्रासंगिकता नहीं है। केन्द्रीयकृत मीडिया पर विराम लगने से सोशल मीडिया और स्थानीय मीडिया के अन्य मोड़ फले-फूलेंगे जिससे लोकतन्त्र की भी अधिक सेवा होगी साथ ही साथ अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को भी सार्थकता मिलेगी।

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