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“चलो यहां से बिना किसी धर्म वाले शहर चलते हैं”

चलो चले यहां से किसी और शहर चलते हैं,

मंदिर मस्जिद के नाम पर हमारे घर जलते हैं।

 

यहां कपड़ों का रंग हमारा मज़हब बताता है,

किसी हाथ में त्रिशूल किसी में खंजर मिलते हैं।

 

जिस तरह अंग-अंग धरती का बांटा है हमने,

माही, सूरज-चांद भी अब डर-डरकर ढलते हैं।

 

हवा बोले बुलबुल से तेरा-मेरा मज़हब अलग है,

यूं अब हवा को चिड़िया के उड़ते हुए पर खलते हैं।

 

मंदिरों की सीढ़ियों पर मुसलमानों को फूल बेचते देखा है,

और हिन्दू मस्जिद की चौखट पर मज़ार की चादर सिलते हैं।

 

पूछे उसका धर्म जो खुदा और भगवान बना बैठा है,

लेकर सारे पंडों मुल्लों को चलो उसके दर चलते हैं।

 

मज़हब से दम घुट गया तो चीख के बोला भारत देश,

चलो माही चले यहां से किसी बिना धर्म के शहर चलते हैं।

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