बेटी, कितना सुंदर लगता है ना यह शब्द क्योंकि एक बेटी परिवार, समर्पण, त्याग, धैर्य और ममता का प्रतीक है। लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, ना जाने क्या क्या नामों से उसे पुकारा जाता है।
बेटी पिता की दुलारी, मां की लाडली, भाई की राजदार, बहन का सहारा और खुद एक साक्षात त्याग की मूरत होती है। बेटी की चाहत किसी को नहीं होती। मां की कोख में अपनी ज़िंदगी की दुआएं मांगती बेटी जब इस दुनिया में जन्म लेती है तभी से उसे अपने अस्तित्व के लिए लड़ना पड़ता है।
कहने को तो सभी बेटी को लक्ष्मी मानते हैं पर कहीं ना कहीं हर माता-पिता के मन में यही आस रहती है कि काश उनके घर बेटा आता। लोग भी बेटी सुनकर थोड़ा उदास हो जाते हैं लेकिन फिर अपने आप को यही दिलासा देते हैं कि बेटों से ज़्यादा बेटियां माता-पिता से प्यार करती हैं। बेटियों की ज़िंदगी भी कितनी संघर्ष भरी होती है। सारी ज़िंदगी बस दूसरों के लिए ही जीती है।
जब बेटियों से कहा जाता है कि ससुराल ही उसका घर है
बेटियां बिल्कुल मेंहदी की तरह होती हैं, जो खुद तो मिट जाती है पर दूसरों के जीवन में सिर्फ रंग और खुशियां छोड़ जाती है। जब मायका हो जाता है पराया। जिस घर में वह बड़ी हुई, जिन माता-पिता की गोद में खेल कर उसने अपना बचपन गुज़ारा, जिस भाई से लड़कर अपनी हर ज़िद मनवाई, उसी घर से उसकी विदाई कर दी जाती है। उसे यह कहा जाता है कि अब ससुराल ही उसका असली घर है।
कितना दिल दुखता होगा उस बेटी का यह देख कर कि जिन अपनों के साथ उसने अपना जीवन बिताया वही शादी के बाद उसके लिए इतने पराए हो जाते हैं कि मायके में उसे सिर्फ मेहमान समझा जाता है।
ससुराल में उसे हर कदम पर सिर्फ उसकी कमियां सुनने को मिलती है। वह अगर सुबह से लेकर रात तक भी काम करती रहे तब भी उसके पति के सिवा कोई उसका अपना नहीं होता जो उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे प्यार से गले लगा ले। एक बेटी को शादी के बाद कितने समझौते करने पड़ते हैं। अपने आप को पूरा बदलना पड़ता है।
कुछ ससुराल के अपवाद छोड़ दे तो ज़्यादातर ससुराल वाले बहु को सिर्फ एक काम करने की मशीन समझते हैं। सारे घर का बोझ बस बहु ही संभालती है। वे यह भूल जाते हैं कि यह भी किसी के घर की बेटी है। उसे तो बस यह एहसास कराया जाता है कि वह अपने मायके और माता-पिता को बिल्कुल भूल जाए।
मायके जाने के लिए भी इजाज़त लेनी पड़ती है
यहां तक कि उसके माता-पिता अगर बीमार भी पड़ जाए तो भी उसे यह हक नहीं दिया जाता कि वह अपने घर जाकर उनकी सेवा कर सके। कितनी असहाय हो जाती है ना वो कि जिस माता-पिता ने रात-रात भर जाग कर उसे बड़ा किया, आज जब उनको उसकी ज़रूरत है तो वह उनके साथ नहीं है।
उसे बस यही कह कर रोक दिया जाता है कि सास-ससुर की सेवा करना ही अब उसका कर्तव्य है। क्या एक बेटी को इतना भी अधिकार नहीं कि वह मुश्किल वक्त में अपने मां या पिता के साथ रह सके? क्या शादी के बाद एक बेटी को सिर्फ अच्छी बहु बनने के लिए सभी रिश्तों को भुला देना चाहिए?
यह कैसा न्याय है कि मायके की दहलीज पार करने के बाद एक बेटी अपने माता-पिता के लिए इतनी पराई हो जाती है कि उसे उनसे मिलने के लिए भी इजाज़त लेने की ज़रूरत होती है?
बहु और बेटी में फर्क क्यों?
क्यों वह साल का एक भी त्यौहार अपने माता-पिता के साथ नहीं मना सकती? उसे सिर्फ रक्षा बंधन और भाई दूज का ही इंतज़ार क्यों करना पड़ता है? ज़्यादातर घरों में तो रक्षा बंधन पर भी बहु को मायके भेजने में ना नुकुर की जाती है क्योंकि ससुराल वालों की बेटी जो घर आती है। बहु मायके चली जाएगी तो उनकी आवोभगत कौन करेगा?
ज़रा सोचिए कि जैसे आप की बेटी आपके घर आई है, वैसे ही आपकी बहु भी तो किसी की बेटी है। फिर वह क्यों घर का सारा काम निपटा कर शाम को अपने घर जाए?
कब तक बेटी और बहू में फर्क किया जाएगा? ज़माने की सोच कब बदलेगी? आखिर क्यों बेटी को यह कहना पड़ता है कि बेटी होना बहुत मुश्किल होता है?