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महिला सुरक्षा: निर्भया के बाद

निर्भया हो या हैदराबाद की डॉक्टर: समाज ने इनकी मौत से कुछ नहीं सीखा।

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बलात्कारी आज भी निर्भीक हैं और ताकतवर भी।

 

16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में देर शाम के वक्त 23 वर्षीय लड़की और उसके दोस्त को बस में बैठाने के बाद बस चालक सहित कुल छः लोगों द्वारा बेरहमी से बलात्कार/रेप कर उसे सड़क पर फेंक दिया गया। जहां बाद में अस्पताल में लड़की ने दम तोड़ दिया। इस घटना के बाद देश ही नहीं बल्कि दुनिया भर में भयंकर विरोध प्रदर्शन देखने को मिला, हम उस घटना को निर्भया के रूप में जानते हैं। आज करीब सात साल बाद भी आरोपियों की सजा बाकी है आखिर ऐसा क्यों है? ये बड़ा प्रश्न हमारे अंदर कचोट पैदा करता है।

निर्भया के बाद आया नया कानून कितना मज़बूत

इस घटना का असर देश में रेप पर बने कानूनों में देखने को मिला जहां अब तक के सबसे कड़े कानूनों को संसद की मंजूरी मिली। मार्च 2013 में क्रिमिनल लॉ एक्ट में बड़े बदलाव किए गए, जिसमें आरोपी के लिए मौत की सजा के प्रावधान रखे गए साथ ही कुछ अन्य मूलभूत सुधारों की तरफ भी ध्यान दिया गया। जैसे रेप के मामलों का 60 दिन में चार्जशीट दाखिल करने से लेकर एक साल के अंदर सजा देना शामिल है।

हकीकत इसके काफी विपरीत है। पहली बार बलात्कार कि परिभाषा को एक बड़े दायरे में लाया गया, जहां लड़कियों के लिए कन्सेंट की उम्र को बढ़ाया गया और इसे कानूनी रूप से 18 वर्ष किया गया। जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में वर्मा कमिटी का गठन किया गया। जिसमें महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा पर विशेष ध्यान देने की बात कि गई है। जिसे सभी राज्यों को लागू करने की जरूरत है।

कड़े कानून के बावजूद रेप कल्चर में कमी नहीं आई

हमारे देश कि सरकारी एजेंसी नेशनल डेटाबेस फॉर सेक्सुअल ऑफेंडर नामक रजिस्ट्री में 2005 से देश भर में विभिन्न यौन अपराधों के लिए दोषी ठहराए गए 4.4 लाख लोगों के नाम और विवरण हैं। यह अपराधियों के नाम, पता, फोटोग्राफ और फिंगरप्रिंटिंग स्टोर करता है। आज ज्यादातर अपराधियों में बलात्कार, सामूहिक बलात्कार, POCSO अधिनियम आदि सहित गंभीर आरोपों के तहत दोषी पाए गए लोग शामिल हैं।

इन सबके बावजूद आज इतने वर्षों और कड़े कानूनों के बाद भी रेप की घटनाए बढ़ती जा रही है और लगभग 90% मामले ऐसे हैं। जो कभी पुलिस में दर्ज ही नहीं हो पाते वजह साफ है की मदद के बदले डर, बदनामी,कोर्ट के चक्कर किसी भी इंसान को घटना के बाद और ज्यादा तोड़ने के लिय काफी है।

हमने उन्नाव में ये देखा जहां बाहुबल का खौफ इतना रहा कि रेप पीड़िता सहित उनके परिवार को मारने तक की कोशिश की गई। वही उन्नाव के ही एक दूसरे केस में आरोपी जेल से बाहर आते ही पीड़ित को आग के हवालें कर देते हैं। जिसमें उसकी मौत हो जाती है साथ ही परिवार डर में जीने को मजबूर हो जाता है।

सुरक्षा में कमी और न्याय में देरी आरोपियों को ही बेखौफ नहीं बनाते ये बाकी के घटिया प्रवृति के लोगों को भी मौका देते हैं। वो रेप जैसे वारदातों को बिना डरे आसानी से अंजाम देते हैं। तमाम कोशिशों के बाद भी रेप पीड़ितों को अक्सर ट्रायल के वक्त आरोपियों और समाज द्वारा असुरक्षा का सामना करना पड़ता है।

गंभीर आंकड़े नीतियों की पोल खोलते हैं

रेप पीड़ितों के लिए निर्भया फंड की व्यवस्था की गई ताकी उनके इलाज सहित कुछ बेहतरी के काम हो। लेकिन पिछले कुछ सालों मे देखा गया है कि किसी भी राज्य ने अब तक 50% फंड का भी इस्तेमाल नहीं किया है। द हिन्दू में छपी खबर के अनुसार 2015 से 2019 तक केंद्र द्वारा 13 1,813 करोड़ की राशि का वितरण किया गया है। जहां 2018 तक 854.66 करोड़ के उपयोग का विवरण महिला और बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी द्वारा लोकसभा में उपलब्ध कराया गया था।

निर्भया फंड के तहत विभिन्न योजनाओं में धन के उपयोग के मामले में शीर्ष पांच राज्यों में चंडीगढ़ (59.83%), मिजोरम (56.32%), उत्तराखंड (51.68%), आंध्र प्रदेश (43.63%) और नागालैंड (38.17%) थे। इसमें सबसे खराब पांच राज्यों में मणिपुर, महाराष्ट्र, लक्षद्वीप शामिल हैं – जिसमें कुछ भी खर्च नहीं हुआ है – और इसके बाद पश्चिम बंगाल (0.76%) और दिल्ली (0.84%) का नंबर आता है। जिनके द्वारा खर्चों का विवरण बेहद कम है। साथ ही समूचे देश में महिलाओं की सुरक्षा के लिए 181 हेल्प लाइन की शुरुआत की गई ताकि वक्त पर मदद पहुंचाई जा सके। लेकिन उनपर भी समाधान बेहद काम होता है।

हालिया राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी रिपोर्ट),  2019 के अनुसार देश भर में 2017 में रेप के कुल 33,885 मामले सामने आए हैं। जिनमें करीब 227 महिलाओं कि रेप के बाद हत्या कर दी गई। इन्हीं सरकारी आंकड़ों की माने तो दोषी पाए जाने के मामले सिर्फ 32.2% है। जिसकी वजह, जांच में देरी और पीड़ित का डर या शर्म की वजह से पीछे हट जाना है। जहां हमें ये भी देखने को मिलता है की 2017 में करीब 86.6% मामलों में पुलिस की चार्जशीट दाखिल हुए जो की 2013 के 95.4% से कम है। पिछले एक महीने में ऐसी कई घटनाएं हुई है जैसे उन्नाव, हैदराबाद , मणिपुर और बिहार के उदाहरण है जिन्होनें देश को झकझोर कर रख दिया। जिनमें रेप के बाद महिलाओं को जला कर मार दिया गया। जिससे साफ दिखता है की समाज में किस तरह की मानसिकता में वृद्धि हो रही है। जहां कानून का डर न के बराबर होता जा रहा है।

अंतरराष्ट्रीय दुनिया भी महिलाओं की असुरक्षा से छूटी नहीं

विश्व भर के देशों से भारत की तुलना की जाए तो एक सर्वे के अनुसार महिला असुरक्षा के मामलों में भारत प्रमुख 10 देशों मे शामिल हैं। जहां महिलाओं की सुरक्षा एक बड़ा प्रश्न है। इस सर्वे में पाया गया की न केवल भारत बल्कि स्वीडन और अमेरिका जैसे देश भी महिलाओं के लिए असुरक्षित है।

देश में फास्ट ट्रेक कोर्ट बनाने की परीक्रिया आज भी ठीक से पूरी नहीं हुई है। लॉ मिनिस्टर रविशंकर प्रसाद के अनुसार अभी 704 ऐसे कोर्ट है और सरकार 1,123 कोर्ट बनाने जा रही है। जिनमें पोक्सों  (प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्शुअल ओफ़ेन्स) के केस भी शामिल किए जाएंगे।

न्याय और अन्याय के उधेड़बुन में लगा देश, पीड़िता के साथ न्याय करने में असमर्थ

हैदराबाद में एक महिला डॉक्टर का रात से समय मदद करने के नाम पर गैंग रेप किया गया और आरोपियों ने उसे आग के हवाले कर दिया। जिसमे महिला की मौत हो गई। इस घटना ने देश भर में गुस्सा भर दिया वहीं विरोध प्रदर्शनों ने फिर से महिला सुरक्षा पर सोचने को विवश कर दिया। इस केस में चार आरोपी थे जिनको घटना के स्थान पर दोबारा जब शिनाख्त के लिए ले जाया गया और उनके द्वारा भागने की कोशिश में सभी आरोपी मारे गए।

इस घटना ने देश में फैले रोष को दो भागों में बांटा, एक ओर वो लोग थे जिन्हें ये न्याय लगा और उन्होंने पुलिस को सर आंखों पर बिठाया। वहीं दूसरी ओर वो लोग हैं, जो मानते हैं कि इसे न्याय नहीं माना जा सकता है। न्याय का मतलब सारी चीज़ें कानून के मुताबिक एक तय समय के भीतर में हों। न की देश में लोगों के गुस्से को शांत करने के लिए इस तरह के उदाहरण दिखे।

महिला सुरक्षा की नीतियों को गम्भीरता से लेना सबसे ज़रूरी कदम

महिला सुरक्षा पर जब भी देश में रोष पैदा होता है। तब कानून और न्याय दबाव में काम करते दिखते है फिर वो स्थानीय पुलिस व्यवस्था हो या देश की सबसे बड़ी न्याय व्यवस्था। इस तरह के चलन का अंत होना चाहिए ताकि रेप के हर केस में सही वक्त पर पुलिस, डॉक्टरी और न्यायीक मदद मिले। देश में महिला उत्पीड़न जैसे पेचीदे समस्याओं के लिए समाज, सरकार खास कर पुलिस के बीच समन्वय और सहयोग आवश्यक है।

ऐसा न हो की कोई महिला रेप या रेप करने की कोशिश पर शिकायत ले कर आए और उसे ये जवाब मिले की जब रेप हो जाए तब आना। ये बात एक महिला को उन्नाव के ही एक पुलिस थाने में कही गई जहां वो अपने साथ रेप की कोशिश होने पर अपनी रिपोर्ट दर्ज करवाने गई थी।

आज हमें ज़रूरत नए कानूनों को बनाने कि नहीं है, बल्कि पहले के कानूनों को जमीनी स्तर पर ठीक से लागू करने की है

जिस देश में समाज महिला को देवी के रूप में पूजता है उसी समाज में महिलाओं की सुरक्षा एक गंभीर समस्या है। हमारा सामाजिक परिवेश महिला मुद्दों पर उन्हीं को घेर कर खड़ा हो जाता है। बजाए इसके की वो इन गंभीर मुद्दों पर खुल कर बात करे। सवाल खुद से पूछे कि क्यों कोई महिला बाहर निकलने में असुरक्षित महसूस करती है। ज़रुरत उस सोच पर चोट करने की है जो ये मान कर ही चलती है की किसी भी हादसे के लिए जिम्मेदारी महिला की है।

भारत में महिला सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए अनेकों कानून मौजूद हैं। जिनपर ज़मीनी स्तर पर काम नहीं हुए हैं। आज हमें ज़रूरत नए कानूनों को बनाने कि नहीं है, बल्कि पहले के कानूनों को जमीनी स्तर पर ठीक से लागू करने की है। निर्भया के साथ हुई बर्बरता के इतने सालों बाद भी हम वही हैं। जहां से चलना शुरू हुए थे, और यही हमारी विडंबना है। जिस पर हम अपनी आधी आबादी के साथ इतने वर्षों बाद भी समझौता करते दिख रहे है।

यह लेख एक साल पहले Policy Perspectives Foundation (PPF) कि वेबसाइट से लिया गया हैं जिसे  https://ppf.org.in/opinion/%E0%A4%AE%E0%A4%B9%E0%A4%B2-%E0%A4%B8%E0%A4%B0%E0%A4%95%E0%A4%B7-%E0%A4%A8%E0%A4%B0%E0%A4%AD%E0%A4%AF-%E0%A4%95-%E0%A4%AC%E0%A4%A6 पर पढ़ा जा सकता हैं|

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