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“बिस्तर पर करवटें बदलती हूं, फिरते हाथ मिलते हैं मेरे मुलायम लाल मांस से”

मैं बिस्तर पर करवटें बदलती हूं

फिरते हाथ मिलते हैं मेरे मुलायम लाल मांस से,

और शांत कर देते हैं मुझे

सब उसे फूल कहते हैं,

मेरा वाला शायद, जंगली है।

 

 मेरे हाथ रस्ता बनाते हैं

 झाड़ीदार जंगल के बीच से,

 और ढूंढ लेते हैं फूल की पंखुरियां।

जैसे ही सहलाती हूं अंदर छुपी कली को

ओस की बूंदें टपक पड़ती हैं।

 

मुश्किल से दबती है मेरी मीठी कराह!

जो हल्के-खुले होठों के बीच से बच निकलती है,

मेरे अंदर का फूल पूरा खुल उठता है

बसंत की खूबसूरती लिए।

 

ओह, आज अगर वो सुन लें मुझे

तो बुलाएंगे मुझे नीच, देखेंगे घृणा से।

क्योंकि मेरे फूल को करना चाहिए था इंतज़ार,

एक मर्द या पति, यानि मेरे जीने की एकमात्र वजह का!

 

पर मैं समझ नहीं पाई

कि उस मर्द के छूने से वहां सूखा क्यों पड़ा,

 शायद रुकना पड़ेगा अगले मौसम तक

 उन ओस की बूंदों को फिर देखने के लिए।


कविता: प्रियंका जोशी

अनुवाद: नेहा

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