ऐ हवा ले पैगाम मेरे यार दा
महबूब-ए-वतन को लिखा है पैगाम प्यार दा,
देश के नाम यह खत लिखकर मैं, वहां दी खुशबू में डूब जाता हूं
गोलियों और बमों दे बीच मिट्टी दी खुशबू नू पाता हूं।
मुझे याद नहीं मैं घर कब गया
जब तेरा ज़िक्र करता हूं तो तेरी गोद में सिर को पाता हूं,
तू भूला तो नहीं मेरी वह अल्हड़पन दी निशानियां,
मेरे गाँव की गलियों विच भरी मस्ती दी जवानियां।
मेरे आम के पेड़ों विच अब भी क्या वह धूप आती है?
जिस पर चढ़कर डालियां झुक जाती थी।
जब छोड़कर गलियां तेरी हिफाज़त को आने लगा मैं
माँ के आंचल से लिपटकर रोने लगा मैं,
मगर मुझे प्यार है तुझसे तेरे रूप पर मैं मरता हूं
तभी तो अपनी महबूबा तक को छोड़कर तेरे लिए
सरहद पर गोली खाने को तैयार बैठा हूं।
ऐ हवा ले पैगाम मेरे यार दा
गुज़रे ज़माने हुए तेरी महक से लिपटे,
यहां तो जी रहा हूं बस तेरी याद में
कितना पागल प्रेमी भी तो हूं मैं,
तुझसे प्यार करता हूं और तुझसे ही दूर रहता हूं!
ना खाने की सुध है इधर, ना पीने का समय
गोलियां खाकर लाखों गमों को पीना सीखते हैं!
मझे तो पता भी नहीं ऐ महबूब-ए-वतन मेरे
कब यह खत लिखना बंद हो जाएगा,
मेरा कोई अक्षर अधूरा रह जाएगा।
क्या सच में भेज सकूंगा “देश के नाम यह खत”
या तिरंगे में लिपटकर साथ लाऊंगा।
बहुत दर्द होता है हर रोज़ दहशत में
मगर क्या करूं वतन महबूब तेरी हिफाज़त मेरा ज़िम्मा है।
क्या लिखूं अब इस खत में आगे
नींद आए ना आए जागना पड़ता है,
मेरे बच्चे हैं वहां उनकी हिफाज़त करना
मेरे वतन मेरे बाद मेरी बूढी माँ का ख्याल रखना,
उनके आंचल से लिपटा रहता था पहले
क्या पता वह आंचल सूना कब हो जाएगा!
आखिरी दम तक लिपटा रहूंगा वतन तेरे सीने से मैं
चाहे दम निकलने पर दुश्मन सामने ही होगा,
एक-एक को दाग दूंगा जो सीमा पर आएगा
मेरा देश है, मेरा प्रेम है दुश्मन अपनी जान गंवाएगा।
ले हवा यह पैगाम-ए-वतन मेरे यार दा,
पहुंचा पुरवैया जाकर तुरंत यह पैगाम, तुझे वास्ता मेरे प्यार दा।