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कविता: “कैसे कहूं है बेहतर, है देश यह हमारा”

बच्चे

बच्चे

कह रहे हो तुम यह

मैं भी करूं इशारा,

सारे  जहां  से अच्छा

हिन्दुस्तां हमारा।

 

यह ठीक भी बहुत है

एथलिट सारे जागे,

क्रिकेट में जीतते हैं

हर गेम में हैं आगे।

 

अंतरिक्ष  में उपग्रह

प्रतिमान फल रहें है,

अरिदल पर नित दिन हीं

वाण चल रहें हैं।

 

विद्यालयों में बच्चे

मिड मील भी पा रहे हैं,

साइकिल भी मिलती है

सब गुनगुना रहे हैं।

 

हां, ठीक कह रहे हो

कि फौजें हमारी,

बेशक  जीतती हैं,

हैं दुश्मनों पर भारी।

 

अब नेट मिल रहा है

बड़ा सस्ता बाज़ार में,

फ्री है वाई-फाई

फ्री सिम भी व्यवहार में।

 

मगर होने से नेट भी

गरीबी मिटती कहीं?

बीमारों के समाने

फ्री सिम टिकती नहीं।

 

खेत में  सूखा है और

तेज़ बहुत धूप है,

गाँव में मुसीबत अभी,

रोटी है, भूख है।

 

सरकारी हॉस्पिटलों में

दौड़ के ही ऐसे,

आधे तो मर रहें  हैं

इनको बचाए कैसे?

 

बढ़ रही है कीमत और

बढ़ रहे बीमार हैं,

बीमार करें छुट्टी तो

कट रही पगार हैं।

 

राशन हुआ है महंगा

कंट्रोल घट रहा है,

बिजली हुई ना सस्ती,

पेट्रोल चढ़ रहा है।

 

ट्यूशन  फी है हाई

उसको चुकाए कैसे?

इतनी सी नौकरी में

रहिमन पढ़ाए कैसे?

 

दहेज़ के अगन में

महिलाएं मिट रही हैं,

बाज़ार में सजी हैं

अबलाएं बिक रही हैं।

 

क्या यही लिखा है

मेरे देश के करम में,

सिसकती रहे बेटी

शैतानों के हरम में?

 

मैं वो ही तो चाहूं

तेरे दिल ने जो पुकारा,

सारे जहां से अच्छा

हिन्दुस्तां  हमारा।

 

मगर अभी भी बेटी का

बाप है बेचारा,

कैसे कहूं है बेहतर

है देश यह हमारा?

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