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बच्चों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ के लिए उन्हें कहानियों से जोड़ें

हर साल बाल दिवस के मौके पर हम बच्चों के भविष्य को संवारने और उनकी दुनिया को बेहतर बनाने के बारे में लंबे-चौड़े भाषण और संकल्प सुनते हैं। फिर आगे साल भर हम उन्हें उनके हाल पर छोड़ देते हैं। कारण, आज की दौड़ती-भागती ज़िंदगी में हमारे पास फुर्सत ही कहां है कि हम इन मासूमों की बातों पर गौर फरमाएं।

ज़ाहिर-सी बात है कि इसके लिए समय के साथ-साथ धैर्य की भी ज़रूरत है, जो कि अब ‘दुर्लभ’ हो चुकी है। नतीजा अकेलेपन में जूझता-भटकता बचपन और दूसरी ओर, मां-बाप की टेंशन।

ऐसी स्थिति में अगर बच्चों को बेहतरीन बाल-साहित्यों से जोड़ दिया जाये, तो दोनों ही पीढ़ियों की कई समस्याएं सुलझ सकती हैं। इस तरह की कहानियां बच्चों के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास को गहराई से प्रभावित करती थी और उनके नैतिक विकास में अहम भूमिका निभाती थीं।

फोटो साभार- flicker

वर्तमान समाज है बच्चों के प्रति असंवेदनशील

आज समय बड़ी तेज़ी से बदल रहा है और इस बदलते समय का सर्वाधिक प्रभाव बच्चों पर है। रोज़गार की तलाश में लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। बढ़ती मंहगाई के दौर में माता-पिता दोनों रोजी-रोटी के लिए घर से बाहर निकलने के लिए मजबूर हैं। इस वजह से बच्चे दादा-दादी, नाना-नानी एवं माता-पिता से मिलने वाले पारिवारिक प्यार से वंचित हो रहे हैं।

भारी बस्ते का बोझ तथा होमवर्क व ट्यूशन की टेंशन में बच्चे के पास बाहर जाकर खेलने तक का समय नहीं है।

वे दिन भर वीडियो गेम, कंप्यूटर एवं मोबाइल पर मारधाड़ वाले हिंसक खेल खेलते हैं, जिससे उनके अंदर हिंसक प्रवृत्ति पनप रही है। आज की ये बाल पीढ़ी दादी-नानी या प्रेरणात्मक कहानियाें की दुनिया से वंचित है।

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कहानियों से दूर होते बचपन के साइड इफेक्ट्स

नंदन, चंपक, सुमन सौरभ, नन्हे सम्राट, बालहंस, चंदामामा, लोटपोट, चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी, बांकेलाल, नागराज जैसी कॉमिक्स से आज की बाल पीढ़ी के लिए भले ही अजनबी हों लेकिन जिन लोगों ने 80-90 के दशक को जिया हो, उनके जे़हन से इन तमाम नामों को मिटा पाना लगभग असंभव है।

आज का बचपन कहानियों के इस रोमांच और मनोरंजन से वंचित है, जिसके कई साइड इफेक्ट्स भी देखने को मिल रहे हैं। आज के दौर के बच्चे अपने हर काम के लिए टीवी, मोबाइल, कैलकुलेटर, इंटरनेट आदि पर अधिक निर्भर हैं। इस वजह से उनके सोचने-समझने और अपने आसपास की परिस्थितियों को विश्लेषित करने की क्षमता सीमित या कम होती जा रही है।

नतीजा, बच्चों में कई तरह की बीमारियों का विकास हो रहा है। पहले चाहे जाड़े-गर्मियों की छुट्टियां हों या फिर रोज़ की फुर्सत, हरेक घर में बच्चों की संगी-साथी होते थे कहानियों वाली किताबें और कॉमिक्स।

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दादी-नानी की कहानियों की कमी

इनके अलावा गर्मियों की दुपहरी और जाड़े की लंबी रातों में दादी-नानी की कहानी वाली पोटली से भी कई जादुई और मनोरंजक कहानियां निकला करती थीं, जिनका अपना एक अलग मज़ा था।

उस वक्त बच्चों में मोटापा, डायबिटीज़, लो आइ विज़न जैसी समस्या देखने को नहीं मिलती थी और ना ही माता-पिता को यह टेंशन होती थी कि उनका बच्चा अपने उम्र से परे ‘कुछ गलत जानकारी’ तो हासिल नहीं कर रहा।

चाहे चाचा-चौधरी, नागराज, बिल्लू या पिंकी के कॉमिक्स हों या फिर पंचतंत्र, हितोपदेश या अकबर-बीरबल की कहानियां, वे सब बच्चों को कल्पनाओं की एक ऐसी दुनिया में ले जाते थे, जहां उन्हें अच्छाई-बुराई, नैतिकता-अनैतिकता या सच-झुठ के हानि-लाभ को अपने अनुभवों से समझने और परखने का मौका मिलता था।

इसके लिए ना तो स्कूल में अलग से कोई कोर्स बुक शामिल होती थी और ना ही अभिभावकों को उनकी ‘मोरल पुलिसिंग’ करनी पड़ती थी।

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अभिभावकों और शिक्षकों की अहम भूमिका

आज के दौर में जहां समाज को जाति, धर्म, लिंग एवं क्षेत्र के आधार पर बांटने वाली ताकतें सक्रिय हैं, वहीं बच्चों के लिए भूत-प्रेत, जादू-टोने वाली अवैज्ञानिक सामग्री परोसी जा रही हैं। इन परिस्थितियों में ज़रूरत है,

विश्व का कोई कोना या किसी भी कालखंड की सभ्यता और संस्कृति, बाल साहित्य की उपस्थिति से अछूती नहीं रही है। लोरी, गीत, खेलगीत, लोककथा और कहानियों के बिना किसी का भी बचपन वंचित नहीं रहा है। बाल साहित्य का प्रारिम्भक रूप इसी प्रकार से प्रभावी रहा है।

कालांतर में माएं अपने शिशुओं और बच्चों के मनोरंजन के लिए देशकाल के अनुरूप लोरी गीत और बालगीत तथा किस्से-कहानियां गढ़ते रहे हैं। बच्चों के लिए माताएं ही सर्वप्रथम बाल रचनाकार की भूमिका निभाती रही हैं।

नाना-नानी, दादा-दादी की कहानियों की जगह अब मोबाइल, इंटरनेट व अन्य संचार के माध्यमों ने ले ली है। यह भी एक गंभीर समस्या बन गयी है। इसके लिए बाल साहित्यकारों की ज़िम्मेदारी तो बनती ही है, साथ ही अभिभावकों को भी आगे आना होगा।

आइए इस बार बाल-दिवस के मौके पर हम अपने बच्चों को वापस कहानियों-कविताओं की उसी हसीन दुनिया में वापस ले जाने की पहल करें, जहां ना सिर्फ उनका मनोरंजन होता है, बल्कि बिना कुछ कहे-सुने ही वे उन्हें एक ‘बेहतर इंसान’ बनने की प्रेरणा भी मिलती है।

 

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