तकरीबन 10 साल पहले की बात है। एक पांच साल की बच्ची थी, उसने बस स्कूल जाना शुरू ही किया था। प्राइवेट वैन से सुबह-सुबह जाती थी और शाम में वैन से ही वापस आती थी। उसे स्कूल जाते हुए करीब एक हफ्ता हो चुका था।
सुबह वैन पर पीछे वाली सीट पर वह बच्ची बैठती थी। उसके बगल में उससे 2-3 साल बड़ी एक दीदी बैठती थी। एक दिन उन्होंने उससे पूछा, “तुम्हारा धर्म क्या है? क्या तुम मुस्लिम हो?” उसे ये शब्द समझ में ही नहीं आए। उस बच्ची का ‘धर्म’ या ‘मुस्लिम’ जैसे शब्दों से अभी तक परिचय नहीं हुआ था। पहले तो कुछ समय तक वो इन शब्दों का मतलब सोचती रही। जब नहीं समझ आया, तो बोली, “दीदी धर्म का मतलब क्या होता है?” उन्होंने जवाब में बोला, “धर्म मतलब religion, तुम्हारा धर्म क्या है?”
वह बच्ची फिर सोच में पड़ गयी। फिर अंत में बोली, “दीदी मुझे नहीं पता।” उन दीदी ने कहा, “अच्छा, तुम अपना पूरा नाम बताओ, टाइटल बताओ।” वह बच्ची बोली, “खान।” फिर दीदी ने कहा, “तुम्हारा आखरी नाम ‘खान’ है तो तुम ज़रूर मुस्लिम होगी।” फिर वह बात वहीं ख़त्म हो गयी।
घर पर आकर जब बच्ची ने अपनी माँ से ‘धर्म’, ‘मुस्लिम’ का मतलब पूछा तो उसकी माँ परेशानी में पड़ गयी। पहले तो उन्हें समझ ही नहीं आया कि जब उनके घर में किसी ने इस शब्द का इस्तेमाल ही नहीं किया, तो उनकी बेटी के दिमाग में ये शब्द कहां से आ गए। अपनी बेटी से जब उन्होंने खूब पूछा तब उसने उन्हें वैन में जो कुछ हुआ सब बताया। अब उसकी माँ सोचने लगी कि अपनी बेटी को वे क्या बताए। बहुत टालने की कोशिश की परन्तु छोटे बच्चे जैसे किसी चीज़ के पीछे पड़ जाते हैं, वैसे ही वह बच्ची पड़ गयी। जिद पर अड़ गयी कि उसे उन शब्दों के बारे में जानना है।
उस बच्ची के माँ-बाप ने तो उसे हमेशा बस इतना ही बताया था, “बेटी, हम सब भारत में रहते हैं और हम सब भारतीय हैं। हम सब एक हैं और हमें हमेशा ज़रूरतमंद लोगों की मदद करनी चाहिए। सबसे मिलकर रहना चाहिए। सबकी तकलीफ में खड़ा होना चाहिए।” वह बच्ची तो गरीब और अमीर के अंतर से भी वाकिफ नहीं थी। बस इतना जानती थी कि हम सब एक हैं। आखिर माँ को बताना तो था ही। घर पर नहीं तो बाहर से ही कभी न कभी पता चल जाता। फिर उन्होंने बताया कि अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से पूजा करते हैं, दुआ मांगते हैं। यही धर्म है। लोग अलग-अलग धर्म के होते हैं। कोई हिन्दू, कोई मुसलमान, कोई सिख, कोई ईसाई कहलाता है। मगर हम सब इस देश में एक साथ मिलकर रहते हैं। यह फर्क सिर्फ दुआ मांगने का है।
उस समय तो वह इतनी छोटी थी कि उसे इस चीज़ के बारे में जानकार कुछ ज़्यादा समझ नहीं आया। उसे कुछ फर्क भी नहीं पड़ा। हां, उसकी ज़िन्दगी में एक छोटा सा फर्क आ गया। उसने समझ लिया की सब एक नहीं हैं। कुछ फर्क हैं। कुछ फर्क बनाए गए हैं। आज जब वह बच्ची 15 साल की हो गयी है तो सोचती है कि ये कितने छोटे शब्द हैं पर इनके कितने बड़े मतलब हैं।
उस बच्ची का नाम है सना खान। हां, मैं ही वह बच्ची हूं। मेरे माँ-बाप ने हमेशा बस इतना सिखाया, “हम सब एक हैं। बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो। हमेशा दूसरों की मदद करो।” बस इतना ही।
अब यही सवाल हम सब लोग अपने आप से पूछें, “क्या हम सब वाकई एक हैं? या फिर बिखरे हुए हैं?“ शायद एक तभी होते हैं जब इंडिया-पाकिस्तान का मैच होता है या फिर किसी दूसरे देश के खिलाफ कुछ लड़ाई लड़नी होती है। शायद तब ही हम सब अचानक से भारतीय बन जाते हैं। क्या यही एकता है। क्या भारतीय होना सिर्फ यही है।