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लॉकडाउन और बाढ़ ले डूबा बिहार के अब्दुल का धोबी घाट

“धोबी का गधा न घर का न घाट का।” आपने यह कहावत कहीं ना कहीं पढ़ी या सुनी तो  ज़रूर होगी लेकिन कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन और फिर उसके बाद बिहार में आई बाढ़ ने इस कहावत से गधा को गायब कर उसके जगह बस धोबी को छोड़ दिया है। यानि “लॉकडाउन और बाढ़ का धोबी न घर का न घाट का।”

इस कहावत को बदलने का मतलब यहां सिर्फ इतना है कि सिवान ज़िला के कुकुमपुर पंचायत में बरवां गाँव के अब्दुल धोबी लॉकडाउन और उसके बाद आई बाढ़ के कारण दोहरी मार झेल रहे हैं। अब्दुल बताते हैं कि वो पेशे और जाति दोनो से धोबी हैं। उनका बसंतपुर बाज़ार में एक छोटा सा धुलाई सेंटर है। जहां से वह रोज़ का औसतन 100 रुपये कमा लेते थे लेकिन फिलहाल ये कमाई औसतन 40-50 रुपये की ही रही गई है।

लॉकडाउन के चलते किराया नहीं चुका पाए अब्दुल

वहीं गाँव में उनके पास एक ज़मीन का टुकड़ा है जिस पर वह खेती भी करते हैं। इतना अनाज़ हो जाता था कि अब्दुल कुछ महीनों तक अपना और अपने बच्चों का पेट भर लेते थे लेकिन इस बार परिस्थितियां वैसी नहीं रहीं। लॉकडाउन के चलते दुकान नहीं खुल पाई और दूसरी तरफ बाढ़ के कारण उनकी फसल बर्बाद हो गई है।

अब्दुल बताते हैं कि उनकी दुकान बहुत छोटी सी है। उसका किराया भी अधिक नहीं है लेकिन लॉकडाउन के कारण वह वो भी देने में असमर्थ रहे तब उसके एवज़ में उन्होनें मकान मालिक के घरेलू काम करके अपना किराया माफ़ करावाया।अब्दुल एक जोड़ी कपड़ा साफ करने का मात्र 15 रुपये लेते हैं और उसमें उसको इस्त्री भी करके देता है।

पहले ही बिजली आने से धोबी का काम वॉशिंग मशीनों ने ले लिया

अब्दुल ने बताया कि जब से गाँव में बिजली आ गई है तब से  उनका धंदा बहुत कम हो गया है, क्योंकि लोगों ने घर-घर वाशिंग मशीन और इलेक्ट्रिक आयरन ले लिए हैं, जिससे अब लोग घरों में ही ये काम कर लेते हैं।  बस कुछ थोड़े  रसूखदार लोग ही अब कपड़े साफ और इस्त्री करवाने धोबी के पास आते हैं। नहीं तो फिर शादी के वक्त ही लोग हमारे पास आते हैं लेकिन इस बार तो लॉकडाउन के चलते शादियां भी नहीं हुई हैं।

जब मैंने अब्दुल से पूछा कि क्या आप भी कपड़े वाशिंग मशीन में धोते हैं? तब अब्दुल ने बताया कि नहीं वो कपड़े घाटपर लेकर जाते हैं, वहीं धोते हैं और वहीं सुखाते भी हैं। फिर घर लाकर कोयले वाले आयरन से कपड़ों को इस्त्री करते हैं।

वहीं अगर किसी कपड़े पर कोई गहरा दाग-धब्बा होता है तब वह ब्लीचिंग पाउडर का इस्तेमाल कर उन दाग-धब्बों को साफ करते हैं।अब्दुल बताते हैं कि वैसे तो ब्लिचिंग पाउडर ब्लॉक ऑफिस से भी उनको मिलता है लेकिन उस से दाग धब्बे सही से साफ नहीं होते हैं, क्योंकि उसमें चूना मिला हुआ रहता है, तब वो ब्लिचिंग पाउडर बाज़ार से ही खरीद कर इस्तेमाल करते हैं।

बाढ़ में फसल और जमा पूंजी दोनों डूब गए

जब मैंने अब्दुल से बाढ़ के बारे में पूछा तब मानो मैंने उनकी  कोई दुखती रग पर हाँथ रख दिया हो। वो वैसे ही बिल-बिला उठा और भारी गले से बोला बाढ़ में मछलियों का सहारा रहा नहीं तब खाने को पाव भर अनाज नहीं था हमारे पास

आगे उन्होनें बताया कि जब लॉकडाउन हुआ था तो लगा था खेती से घर का काम चल जाएगा तब मैंने अपनी कुछ ज़मा-पूंजी खेती में लगा दी, जिसमें ट्रेक्टर से खेत जुतवाना, खाद खरीदना फिर मक्का और धान का बीज खरीदा।  इसमें मेरे कुल 3 हज़ार रुपये खर्च हुए और उम्मीद यही थी कि हमारे लिए खेती ही इस बार सहारा बनेगी लेकिन बाढ़ ने सारे मंसूबों को बहा दिया।

कोई बाढ़ राहत राशि या बीमा अब तक नहीं मिला

मैंने एक तरफ मक्का बोया था तो दूसरी तरफ धान लेकिन बाढ़ का ऐसा कहर की दोनों डूब गए।  थोड़ा सा धान बचा है लेकिन सितम्बर माह के अंतिम में जो बेमौसम बारिश हुई तो उसके बाद फसल में ना जाने कौन सी बीमारी लग गई है, यानि अब जो एक उम्मीद थी वो भी चली गई।

बाढ़ के मुआवजा के बारे में जब पूछा तो अब्दुल ने बताया, “बाढ़ का कोई भी मुआवजा अभी तक हमको तो नहीं मिला है और ना ही अभी तक प्रधानमंत्री फसल बीमा बीमा की कोई राशि हमको मिली है। अब क्या होगा यही सोच-सोच कर परेशान रहता हूं कि आगे की ज़िंदगी कैसे बीतेगी?”

ये कहानी बस अब्दुल की नहीं है ना जाने अब्दुल जैसे कई ऐसे धोबी होंगे या लोग (अन्य पेशे वाले) होंगे, जिनकी ज़िन्दगी इस लॉकडाउन और बाढ़ ने बेहाल कर रखी होगी आखिर उनका सूद कौन लेगा?

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