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इंसानी संवेदना में स्वार्थ के बलिदान की कहानी है ‘दरबान’

अक्सर कहा जाता है कि साहित्य ने मानवीय जीवन में संवेदनाओं को फलने-फूलने और अभिव्यक्त होने का रास्ता दिया है। साहित्य मानवीय संवेदना को अभिव्यक्त ही नहीं करता हमें संवेदनशील भी बनाता है।

हम सभी के जीवन की सीधी-सरल कहानियों के सफर में साहित्य का स्थान कभी न कभी रहा है। उस साहित्य में  किसी न किसी तरह से रवींद्रनाथ टैगौर की कहानियों का एक अलग  मुकाम है।

रवींद्रनाथ टैगोर जी का साहित्य और हमारी ज़िंदगी

भारतीय साहित्य में रवींद्र साहित्य की कहानियों को कहने की कोशिश नाटकों और पर्दों पर कई बार की गई है। रवींद्र साहित्य की कहानियों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उसे जितनी बार पढ़ा जाए या उन कहानियों को जितनी भी बार कहने की कोशिश की जाए, वह अपना नयापन खोज लेती है।

यह रविन्द्र साहित्य के कहानियों का प्रभाव है जो वह अभिनय करने वाले कलाकारों को अपने साथ बांध लेती है। हर कलाकार अपने अभिनय का श्रेष्ठ देने की कोशिश करता ही है। उसके बाद मानवीय संवेदनाओं और नियति का ताना-बाना इस तरह निखर कर सामने आता है कि आंखे फटी की फटी रह जाती हैं।

दरबान कहानी का संदेश आज कल के लिए सार्थक

कुछ इसी तरह की बात जी5 पर रिलीज हुई 1 घंटा 28 मिनट मिनट की फिल्म “दरबान” में की गई है। जो  रवीन्द्रनाथ टैगौर की कहानी “खोकाबाबर प्रत्यवर्तन(छोटे उस्ताद की वापसी)” पर आधारित है। रवीन्द्र दा ने यह कहानी 1891 में लिखी थी।

उस समय के हिसाब से कहानी में बहुत सारी चीजें जोड़ी गई हैं बस कहानी की मूल आत्मा को नहीं छेड़ा गया है। इससे पहले यह कोशिश बंग्ला में 1960  में उत्तम कुमार को लेकर हुई थी जो बंग्ला सिनेमा प्रेमिओ के जेहन में बसी हुई है।

दरबान कहानी का सार और उसमें गुंथी हुई हमारी आपबीती

अन्नू कपूर की आवाज में कहानी शुरु होती है एक खानदानी नौकर (रामचरन) शारिब हाशिमी की। राम चरन कोयले खादान के बड़े मालिक नरेन बाबू के घर नौकरी करता है। जहां कोई भी उनको नौकर नहीं मानता है। कोयला खादान का राष्ट्रीयकरण होता है और नरेन बाबू सब कुछ खो देते हैं।

जिसके बाद राम चरन अपने गांव चला आता है। नरेन बाबू का बेटा अनुकूल(शरद केलकर) अपने पिता की खोई संपत्ति वापस खरीद लेता है और अपने बच्चे को पालने के लिए फिर से खानदानी नौकर रामचरन को वापस ले आता है।

एक दिन एक हादसा होता है और अचानक अनुकूल का बेटा गायब हो जाता है। रामचरन अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभा पाता और उस पर इल्जाम लगता है। वह पुराना नौकर होने के कारण अनुकूल उसे कुछ नहीं कहता बस घर से निकाल देता है।

रामचरन स्वयं का अपराधबोध इस तरह कैद कर लेता है कि वह अपने बच्चे को तब तक अपना नहीं पाता। उसका बच्चा जब उसे “चन्ना” कहकर पुकारता है। जिस नाम से अनुकूल का बेटा पुकारता था। तब रामचरण अपने बेटे को अपनाता है और लाड़-प्यार से उसका भरन-पोषण करता है।

रामचरन उसे किसी से नहीं मिलने देता है। वह उसकी पढ़ाई लिखाई के लिए भी किसी तरह की कमी नहीं आने देता है। लेकिन वह उसे  छोटे मालिक कहता है। कहानी में हर मोड पर आता इमोशनल ड्रामा है और मानवीय संवेदना को छूता ही नहीं है आंखो का एक पोर भी भिगा जाता है।

कहानी के अंत में रामचरन अपने बेटे को अनुकूल को सौंप देता है और उनका बेटा बताकर स्वयं को अपराधबोध से मुक्त करता है। रामचरन का बेटा इस बात को समझ लेता है और वह कुछ नहीं कहता। अंतिम दृश्य में वह अपने पिता रामचरन के घर लौटता है।

आओ बहती सी ज़िन्दगी में कलाकारों के चरित्र को निहारें

कमाल की सिनेमाटोग्राफी से सजी यह फिल्म रामचरन के चरित्र में कई उतार-चढ़ाव को दिखाती है। जिसको निभाने में शारिब हाशमी कामयाब हुए हैं। अनुकूल के चरित्र में शरद केलकर के पास करने को बहुत कुछ है पर वह एक अच्छे मालिक के रूप में दिखते हैं और अच्छे भी लगते हैं।

रसिका दुग्गल, फ्लोरा सैनी, हर्ष छाया सभी ने अपने-अपने हिस्से में अच्छा काम किया है। तमाम पात्र ने अपनी भूमिकाओं में अच्छा किया है पर वह इतना अच्छा नहीं है जो लंबे समय तक छाप छोड़कर रखे। “दिल भरया” और “बहती सी जिंदगी” गाना सुनने में अच्छा लगता है।

साहित्य आधारित फिल्म देखने की अगर इच्छा है तो दरबान आपको कहीं से निराश नहीं करती है। उनको भी यह फिल्म देखनी चाहिए जिसको मासला फिल्मों से मनोरंजन मिलता है वह भी मानवीय संवेदना के ताने बाने में फंस जाएगे।

नैशनल अवॉर्ड से सम्मानित मराठी निर्देशक विपिन नाडकर्णी ने इंसान के अंदर संतान के मोह, मालिक और नौकर के बीच वफादारी और अटूट रिश्ते को दिखाने का प्रयास किया है। जिसके लिए इंसानी जज़्बातों को झकझोरने की कोशिश की है।

मगर समस्या यह है कि रविन्द्र दा की इस कहानी को कई बार कहा गया है उस कई बार कहे गए कहानी में “दरबान” यादगार बन जाएगी, यह कहना मुश्किल है। शायद यह रविन्द्र साहित्य का अपना कैनवास है जो कितनी ही बार कहीं जाए कभी पूरी नहीं जान पड़ती है।

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