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राष्ट्र: धर्म, भाषा, जाति और संप्रदाय की नींव पर खड़ी एक सांप्रदायिक संस्था

धार्मिक कार्यक्रम

धार्मिक कार्यक्रम

हम अक्सर शब्दों के चयन में गलतियां करते हैं। हमें शब्दों का गलत चयन करने की आदत हो गई है क्योंकि हमें उन शब्दों का अर्थ ठीक से नहीं पता होता है। ऐसे ही शब्द हैं राष्ट्र और राज्य।

हम राज्य और राष्ट्र शब्द को एक ही समझ लेते हैं। हम इन दोनों शब्दों को एक दूसरे का पर्याय समझ लेते हैं। हम अक्सर इस दुविधा में फंस जाते हैं कि भारत राष्ट्र है या राज्य, जबकि राष्ट्र और राज्य दोनों अलग-अलग अवधारणाएं हैं।

राज्य की उत्पत्ति एवं उसका अर्थ

प्राचीन काल में राज्य को ‘पोलिस’ और ‘सिविटास’ के नाम से जाना जाता था, जिनका अर्थ नगर-राज्य होता है। राज्य शब्द के अंग्रेज़ी रूपांतरण ‘स्टेट’ की उत्पत्ति ‘स्टेटस’ से हुई है, जिसका अर्थ ‘स्तर’ होता है। शाब्दिक अर्थ के अनुसार राज्य एक ऐसा संगठन है जिसका स्तर अन्य संगठनों से ऊंचा है।

आधुनिक रूप में राज्य शब्द का प्रयोग सबसे पहले इटली के प्रसिद्ध विद्वान ‘मैकियावेली’ ने अपने ग्रंथ ‘प्रिंस’ में किया था। 16वीं शताब्दी में इस शब्द का प्रयोग इंग्लैंड में प्रचलित हुआ और उसके बाद अन्य देशों में भी इस शब्द का प्रयोग किया जाने लगा।

राज्य की अवधारणा को समझाने के लिए आधुनिक विद्वानों में से एक गार्नर ने राज्य की परिभाषा देते हुए लिखा है, “राजनीति विज्ञान और सार्वजनिक कानून की धारणा के रूप में राज्य संख्या में कम या अधिक व्यक्तियों का ऐसा संगठन है जो किसी प्रदेश के निश्चित भू-भाग में स्थायी रूप से रहता है, जो बाहरी नियंत्रण से पूर्ण या लगभग स्वतंत्र हो और जिसका एक संगठित शासन हो जिसके आदेशों का पालन नागरिकों का विशाल समुदाय स्वभावतः करता हो।”

गार्नर की इस परिभाषा से पता चलता है कि राज्य के चार आवश्यक तत्व होते हैं-

भारत संघ राज्य कई संघीय इकाईयों जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश आदि से मिलकर बना है। इनको हम राज्य बोलते हैं। संविधान में भी कुछ जगहों पर इनके लिए राज्य शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी तरह संयुक्त राज्य अमेरिका की सभी इकाईयों के लिए राज्य शब्द का प्रयोग किया जाता है।

इन संघीय इकाईयों के लिए राज्य शब्द का प्रयोग करना गलत है क्योंकि संघ राज्यों की इन इकाईयों में राज्य का निर्माण करने वाले प्रथम तीन तत्व (निश्चित भू- क्षेत्र, जनसंख्या और सरकार) तो मौजूद रहते हैं लेकिन इनकी आंतरिक संप्रभुता सीमित होती है और बाहरी संप्रभुता तो इन्हें बिल्कुल ही प्राप्त नहीं होती है।

फोटो साभार: फेसबुक

भारतीय संघ की इन इकाईयों की विधानसभाओं को केवल उन्हीं विषयों पर कानून बनाने का अधिकार जिनका उल्लेख संविधान की राज्य सूची और समवर्ती सूची में है। इन विषयों पर भी संसद विशेष परिस्थितियों में कानून बना सकती है। समवर्ती सूची में जिन विषयों का वर्णन है, उन पर यदि राज्य विधानमंडल और संसद दोनों कानून बना देती है तो ऐसी स्थिति में संसद द्वारा बनाया गया कानून ही मान्य होगा।

विभिन्न देशों से संधियों, युद्ध की घोषणाओं और देश का विश्व में प्रतिनिधित्व इकाईयों का प्रधान नहीं बल्कि संघ का प्रधान करता है। इसलिए संप्रभुता के अभाव के कारण इनको राज्य कहना गलत होगा।

राष्ट्र की उत्पत्ति एवं उसका अर्थ

‘राष्ट्र’ शब्द लैटिन भाषा के शब्द ‘नेशन’ से बना है। इस शब्द की उत्पत्ति ‘नेशियो’ से हुई है जिसका अर्थ होता है ‘पैदा होना’। इस अर्थ में राष्ट्र का मतलब स्वयं शासन करने वाली जाति से है जिनकी पैदाइश एक ही नस्ल से है।

प्रो. गार्नर ने लिखा है, “राष्ट्र सांस्कृतिक रूप में संगठित और एकरूपीय समुदाय है, जिसे अपने आध्यात्मिक जीवन की एकता और अभिव्यक्ति का ज्ञान है और उसे बनाए रखना चाहता है।”

राष्ट्र के बारे में बर्गेस ने लिखा है, “राष्ट्र जातीय एकता के सूत्र में बंधी हुई वह जनता है, जो एक निश्चित भू-खंड में निवास करती है।”

राज्य किसी निश्चित भू-प्रदेश पर निवास करने वाले मनुष्यों का राजनीतिक संगठन है, जबकि राष्ट्र का आशय उन मनुष्यों से है जो समान भाषा, धर्म, सभ्यता और संस्कृति के सूत्र में बंधे रहते हैं।

गिलक्राइस्ट ने लिखा है, “राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक भावना है। यह उन लोगों में उत्पन्न होती है, जो एक प्रजाति से संबंधित हैं तथा एक ही देश में निवास करते हैं और जिनकी भाषा, धर्म, इतिहास, परंपराएं, हित और राजनीतिक आदर्श समान हैं।”

राज्य के लिए संप्रभुता और सरकार आवश्यक तत्व हैं। इनके बिना राज्य का अस्तित्व संभव नहीं है लेकिन राष्ट्र के लिए संप्रभुता और सरकार आवश्यक नहीं है। एक ‘राष्ट्र’ ‘राज्य’ तो हो सकता है लेकिन एक ‘राज्य’ ‘राष्ट्र’ नहीं हो सकता है।

राष्ट्र का जन्म एक भाषा और एक धर्म के मानने वाले लोगों से मिलकर होता है लेकिन उस राष्ट्र को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए संप्रभुता और शासन-तंत्र की आवश्यकता होती है। ऐसी स्थिति में वह एक राष्ट्र-राज्य बन जाता है क्योंकि अब उसमें राज्य के चारों अनिवार्य तत्व मौजूद हैं। पाकिस्तान और इस्राइल इसका उदाहरण हैं।

राज्य का गठन धर्म निरपेक्षता के आधार पर होता है। अगर एक धर्म और एक भाषा बोलने वाले लोगों के पारस्परिक सहयोग और एकता के भाव के आधार पर एक संस्था का निर्माण होता है तो वह राज्य हो ही नहीं सकता। इस तरह एक ‘राष्ट्र’ ‘राज्य’ हो सकता है लेकिन एक ‘राज्य’ ‘राष्ट्र’ नहीं हो सकता है।

फोटो साभार: फेसबुक

जब राष्ट्र का आधार धर्म, जाति और भाषा है तो राष्ट्र में अल्पसंख्यकों के प्रति कैसा दृष्टिकोण होगा इसका हम अंदाज़ा लगा सकते हैं। पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ जो हुआ वह हमारे सामने है। राष्ट्र अपने निवासियों को एकता के सूत्र में तभी बांध सकता है जब वहां सिर्फ एक ही धर्म को मानने वाले और एक ही भाषा को बोलने वाले लोग हो और कोई अल्पसंख्यक ना हो।

अगर एक से ज़्यादा भाषा बोलने वाले लोग होंगे तो राष्ट्रीयता की भावना से ओत-प्रोत लोगों में अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा और असहिष्णुता की भावना पैदा होगी और उस क्षेत्र के निवासी ही एक दूसरे के शत्रु बन जाएंगे। ऐसे में लोकतंत्र का सवाल ही पैदा नहीं होता। अल्पसंख्यकों को दबा दिया जाएगा।

जब राष्ट्र की नींव ही धर्म, भाषा, जाति और संप्रदाय पर रखी जाती है तो यह कहना सही होगा कि राष्ट्र एक सांप्रदायिक संस्था है। यदि राष्ट्र एक सांप्रदायिक संस्था है तो राष्ट्रवाद भी एक साम्प्रदायिक भावना ही मानी जाएगी। सरल शब्दों में हम कह सकते हैं कि राष्ट्रवाद लोगों के किसी समूह की उस आस्था का नाम है जिसके तहत वे खुद को साझा इतिहास, परम्परा, भाषा, धर्म, जातीयता और संस्कृति के आधार पर एकजुट मानते हैं। अगर उस क्षेत्र में कई भाषा, संस्कृति, धर्म और जाति के लोग हुए तो यह राष्ट्रवाद की भावना उनमें एक दूसरे के प्रति घृणा पैदा करने का ही काम करेगी।

लोग अक्सर कहते हैं कि हमें उग्र राष्ट्रवाद को नहीं अपनाना चाहिए। हमें मानवता से ऊपर राष्ट्रवाद को नहीं रखना चाहिए। लोग कहते हैं कि हिटलर भी राष्ट्रवादी था। दरअसल ‘हिटलर भी’ की जगह ‘हिटलर ही’ होना चाहिए, अर्थात हिटलर ही राष्ट्रवादी था। हिटलर की आर्यों की सर्वोच्चता की मान्यता और यहूदियों के प्रति उसकी नफरत ही राष्ट्रवाद है। वह जर्मनी को आर्यों का देश बना कर यहूदियों से मुक्त करवाना चाहता था। जातीय विभिन्नता को समाप्त करके एक जाति और एक संस्कृति के लोगों के अस्तित्व के अलावा अन्य को समाप्त करना ही राष्ट्रवाद है।

यदि भारत राज्य राष्ट्र है तो..

कुछ विद्वान भारत को राष्ट्र नहीं मानते क्योंकि उनका मानना है कि भारत कई राज्यों का राष्ट्र हैं जिसके लिए वे राज्य-राष्ट्र शब्द का प्रयोग करते हैं। उनके अनुसार भारत कई राष्ट्रों(जिनको हम राज्य कहते हैं) से मिलकर बना है। इन क्षेत्रों की अलग-अलग भाषाएं, संस्कृति और इतिहास है।

यदि उनके इस तथ्य को स्वीकार किया जाए तो विभिन्न क्षेत्रों में समय-समय पर होने वाले आंदोलन जैसे खालिस्तानी आंदोलन, असम आंदोलन, नक्सलवादी आंदोलन और झारखंड आंदोलन, जिनको हम उपराष्ट्रवादी आन्दोलन कहते हैं, वे आंदोलन राष्ट्रवादी आंदोलन हो गए। ऐसा इसलिए क्योंकि इनका संचालन उस राष्ट्र के निवासी अपनी राष्ट्रीयता की भावना से ओत प्रोत हो कर कर रहे हैं।

फोटो साभार: Twitter

अगर हम इस भावना का अध्ययन करे तो हमें राष्ट्रवाद सिवाय उन्माद के कुछ नहीं दिखाई पड़ेगा। इसलिए यह ज़रूरी है कि हम भारत को राज्य या देश कह कर पुकारे, राष्ट्र नहीं। अगर हम भारत को राष्ट्र कहते हैं तो इसका यह मतलब है कि हम भारत को सिर्फ एक धर्म विशेष के लोगों के रहने के लायक बनाने का सपना अपने मस्तिष्क में पाले हुए हैं।

हमें राष्ट्रवादी होने की बजाए देशभक्त बनना चाहिए। देश लोगों से मिलकर बनता है इसलिए देश से प्रेम करने से पहले देश के लोगों से प्रेम करना चाहिए और फर्ज़ी राष्ट्रवाद का चोला उतार कर फेंक देना चाहिए।

भारत में ऐसे लोग भी हैं जो भारत को राज्य से राष्ट्र बनाना चाहते हैं। इस विचारधारा में विश्वास रखने वाले लोग राष्ट्रवादी कहलाते हैं। यदि कोई उनकी आलोचना करे तो वे उसे राष्ट्रद्रोही नहीं, बल्कि देशद्रोही के खिताब से नवाज़ते हैं।

यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि जब कोई उनकी उन्माद से भरी राष्ट्र की अवधारणा की आलोचना करता है तो ये उसको देशद्रोही बोलते हैं यह जानते हुए भी कि राष्ट्र और राज्य में अंतर होता है। आम लोगों को ये लोग बोलते हैं कि राष्ट्र विरोधी होने का मतलब देश विरोधी होना होता है। ऐसा करके ये अपने विरोधियों के खिलाफ राष्ट्रवाद के नाम पर अपने जैसे लोगों से बनी भीड़ इकट्ठा करते हैं।

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