किसानों के लिए यह आंदोलन अभी शुरू ही हुआ है और अपनी चरम सीमा तक भी नहीं पहुंचा है। मतलब किसान अभी इससे भी बहुत लम्बे और बड़े आंदोलन के लिए तैयार हैं। जितनी देर सरकार इन काले कानूनों को वापिस लेने में करेगी, यह आंदोलन उतना ही बड़ा बनता जाएगा।
पूर्व के फौजी आज के किसान हैं
केंद्र सरकार को इन तीन काले कानूनों को वापस ले लेने चाहिए, क्योंकि बहुत जल्द सरकार इस बात को समझ लेगी कि उनके पास और कोई विकल्प है भी नहीं। आंदोलन कर रहे किसान सरकारी तंत्र यानि पुलिस और गोदी मीडिया से नहीं डरते और ना ही वे इन्हें बदनाम कर सकते हैं, बल्कि इनमें से अधिकतर किसान अपनी जवानी में भारतीय सेना में भी रहे हैं।
इसलिए वे कठिन परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम भी हैं ओर इनकी मानसिक और शारीरिक शक्ति भी एक आम आंदोलनकारी से ज़्यादा है। यही कारण है कि यह किसान पूरे देश का पेट भी भरते हैं।
किसान अपनी मांग और आंदोलन के तरीके को लेकर बिल्कुल स्पष्ट हैं। उन्हें यह काले कानून खत्म करने हैं और इन कानूनों के लिए वे सीधे प्रधानमंत्री को ज़िम्मेदार मानते हैं। किसानों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि भाजपा कितनी बड़ी पार्टी है या उनरा IT सेल कितना बड़ा है या फिर प्रधानमंत्री की लोकप्रियता कितनी है और कितनी नहीं।
किसानों के हिसाब से प्रधानमंत्री के पास सरकार का पूरा कंट्रोल है, जो कि सच भी है और इसलिए प्रधानमंत्री या तो काले कानून वापस लें वरना किसान उनका सीधा विरोध करेंगे।
आंदोलन में कई राज्यों के किसान, मज़दूर और कृषि से जुड़े संगठन हैं शामिल
आंदोलन में पंजाब और हरियाणा के किसानों की संख्या सबसे ज़्यादा है। पंजाब के किसान सिख कौम से हैं, जो कौम हर आपदा के समय देश को लंगर खिलाने लगती है।
इसलिए सरकार यह तो ना ही सोचे कि किसानों को आंदोलन में खाना कहां से मिलेगा। जब मैं आंदोलन में पहुंचा तो बुज़ुर्ग किसान ने मेरे हाथ में भी एक सेब पकड़ा दिया।
सरकार को किसानों के मुद्दे को साख का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए
सच तो यह है कि साम-दाम-दंड भेद से इस आंदोलन को तोड़ने की कोशिश की जा रही है। अगर सरकार ऐसा करेगी तो मूंह की खाएगी।
सरकार को अपने पूंजीवादी मित्रों खासकर अंबानी और अडानी से मिलकर कह देना चाहिए कि वैसे भी आधा देश तो आपको बेच ही दिया है, अब किसानों के खेत और उनकी फसलों से नज़र हटा लीजिए। सरकार इन कानूनों को वापिस ले रही है।