Site icon Youth Ki Awaaz

कड़कड़ाती बर्फीली ठंड में भी किसानों के हौसले हैं बुलंद

आज एक वीडियो देख रहा था जिसमें ज़ी न्यूज़ की एक रिपोर्टर को किसानों ने घेर लिया और उससे सवाल करने लगे। किसानों ने कहा कि हमें कवर मत करो। तुम लोग हमें कभी आतंकवादी, कभी नक्सलवादी, कभी खालिस्तानी और न जाने क्या क्या बकवास दिखाकर आन्दोलन को तोड़ने की कोशिश में लगे हो। उस वक्त सैकड़ों लोगों की भीड़ में घिरी उस महिला रिपोर्टर की हालत जाल में फंसे शिकार की तरह थी जो तड़प रहा हो बाहर निकलने के लिए। 

बहरहाल किसान आन्दोलन अपनी पर राह है और किसानों का इस कड़कड़ाती बर्फीली ठंड में भी हौसला बुलंद है। वैसे एक किसान ने उस रिपोर्टर से कहा कि तुम्हारे चैनल में हिम्मत है तो मेरा इंटरव्यू लो और दिखाओ लोगों को कि क्या सच्चाई है लेकिन रिपोर्टर ने मना कर दिया।

यह इस तरह की कोई पहली घटना नहीं है। इस किसान आन्दोलन में जब तमाम मेनस्ट्रीम टीवी चैनलों के रिपोर्टर को देखते ही “गो बैक, गो बैक” और गोदी मीडिया मुर्दाबाद के नारे लगने लगते हों। यह पहली बार ही है जब आप ग्राउंड में कवर कर रहे हों, बाईट ले रहे हों या इंटरव्यू कर रहे हों तो लोग आपसे आपके चैनल का नाम पूछें, आईडी देखें और तमाम पड़ताल करने के बाद ही आपसे बात करें।

किसानों ने यह तो दिखा दिया है कि वे कवरेज के भूखे नहीं हैं 

वैसे आज के हालतों से किसानों ने साबित कर दिया है कि मीडिया सही खबरें दिखाएगी तब ही बात होगी। वर्ना जो बदमिजाज़ी या कुछ भी उल्टा-पुल्टा करेगा तो अंजाम आप देख ही रहे हैं। बहरहाल लोगों में सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा आज तक, रिपब्लिक भारत, ज़ी न्यूज़, इंडिया टीवी, एबीपी न्यूज़ सरीखे चैनलों पर है।

इनके रिपोर्टरों का आलम यह था कि लोग उनकी माईक आईडी देखकर इन्हें दौड़ा लेते थे। बात करना और इंटरव्यू देना तो बहुत दूर की बात थी। अब वक्त ऐसा आ गया है कि यह मुख्यधारा का मीडिया अपने रिपोर्टरों को बिना माइक आईडी के ग्राउंड पर भेजता है। इयरफोन से लाइव करने को कहता है ताकि लोग पहचान लें और इन्हें दौड़ा न लें।

पिछले 26 नवंबर से इस आन्दोलन में मैं किसानों के साथ हूं। पानीपत टोल-प्लाज़ा से ही आन्दोलन को कवर करना शुरू किया था और फिर लगातार सिंघू बॉर्डर तक हर घटना को नज़दीक से देखा है। उस वक्त तक दो हिस्से बन चुके थे एक हिस्सा था किसानों के साथ चल रहे उनके हर संघर्ष को ईमानदारी से देख समझ रहे मीडिया का और दूसरा था कंटीले तारों और बैरिकेडों के उस पार प्रशासन की ओट में छिपे मीडिया का।

किसी भी मेनस्ट्रीम मीडिया के रिपोर्टर की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि वह इस पार आकर बात कर सके। एक बड़े संस्थान के लिये काम करने वाले मेरे एक मित्र ने कहा कि मन तो बहुत करता है कि हम भी उस पार आकर बात करें लेकिन संस्थान से मनाही है।

मीडिया मुर्दाबाद के स्वर मुखर होकर मीडिया को भगा रहे हैं

सामाजिक चेतना के स्तर पर पहली बार किसी आन्दोलन में हुआ है कि लोग मीडिया मुर्दाबाद करने के अलावा मुखर होकर मीडिया को भगा और कवर न करने को कह रहे हैं। पिछले कई सालों से बहुत बार ऐसा हुआ है कि मीडिया ने प्रोपेगेंडा फैलाकर दंगे करवाये। मीडिया में सिर्फ एंकर ही नहीं होता है उसके पीछे तमाम ग्राउंड रिपोर्टर और एक भारी भरकम टीम होती है जो दंगे फैलाने का कुचक्र रचने का और रेडियो रवांडा बनाने का मसाला तैयार करती है।

ऐसे में खास तौर पर कई बार रिपोर्टर के ज़मीर और उसकी अपनी चेतना को लेकर भी खूब सवाल किये जाते हैं। मसलन कि उसे दंगाई कंटेंट तैयार करने से मना कर देना चाहिए। ग्राउंड पर अपने साथ हुए तमाम दुर्व्यवहारों को जाकर ऑफिस में बताना चाहिये और संपादक सहित एंकर को लताड़ना चाहिये।

मेरा मानना है कि रोटी और पेट के सवाल के इतर ऐसे चैनलों में आम तौर पर अधिकांश ऐसे ही लोग रखे जाते हैं जो कुशलता से दंगाई कंटेंट तैयार करने में माहिर हों। ऐसे लोगों को ही हमेशा तरजीह मिलती है जो सामाजिक राजनीतिक चेतना के स्तर पर संपादकीय नीति में फिट बैठते हैं।

ये लोग मुसलमानों, दलितों, महिलाओं, कश्मीर, पाकिस्तान, राम मंदिर, आरक्षण, लव-जिहाद और ऐसे तमाम मुद्दों पर नखशिख कुंठा से लबालब और पूर्वाग्रह की काल कोठरी में भयंकर कैद होते हैं।

इसलिये यह सोचना कि ग्राउंड में जनता से लताड़ खाने के बाद रिपोर्टर वापस ऑफिस जाकर अपना ज़मीर जगा लेगा और संपादक को चपेट लगायेगा यह दूर की कौड़ी है। क्योंकि उस रिपोर्टर की चेतना भयंकर रूप से शासक वर्ग और अपने चैनल की संपादकीय नीति की गुलाम होती है।

लोग एंकर के शोर और उसके मसखरेपन से अब ऊब रहे हैं

हां यह बात अवश्य है कि एंकरों की ज़हर और नफ़रत भरी भाषा और प्रोपेगेंडा का शिकार अब ग्राउंड रिपोर्टर होने लगे हैं। यहां जब मैं लोग कह रहा हूं तो उनमें सिर्फ वही लोग हैं जिनके मुद्दों पर एंकर तमाशे दिखा रहा हैं। जो मीडिया से यह उम्मीद लगाये थे या हैं कि वह उनकी बात करेगा उनके मुद्दों पर रिपोर्टिंग करेगा।

ज़िम्मेदारों से सवाल करेगा उनकी उम्मीद खत्म हो चुकी है। एंकर तो उन्हीं को देशद्रोही और देश समाज का दुश्मन साबित करने पर तुला है। इसलिये मीडिया की मुखालिफत भी वही कर रहे हैं जिसके घर में आग लगी है। जो गर्म कंबल में पैर डाले ब्लोअर का मज़ा ले रहा मिडिल क्लास है वह चुपचाप मज़े ले रहा है।

जैसा कि राहत इंदौरी कहते थे

लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में,

यहां पर सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है।

तो बस जिसके जिसके मकान में आग लग रही है वह बाहर निकल दुश्मन की पहचान कर रहा है। उससे हिसाब से रहा है. लेकिन ये तो तय है कि मुनाफे के भूखे यह भेड़िये किसी के सगे नहीं हैं। यह सबका गोश्त नोच खायेंगे।

डर तो इस बात का है कि किसी दिन नफरत और उन्माद की फैक्ट्री की यह दिहाड़ी भीड़ के हाथ किसी बड़ी दुर्घटना में न फंस जायें। वैसे भी यह ऐसे लोग हैं कि रिपोर्टर की लाश पर चढ़कर टीआरपी का नंगा नाच न करें तो मेरा नाम बदल देना।

कुछ भी हो लेकिन कम से कम देश के सामान्य जन की रोज़ाना बहस में गोदी मीडिया जैसा डिस्कोर्स धड़ल्ले से अब शामिल है। लोग इस पर बात कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं और कम से कम इसके नुक़सान को समझ रहे हैं।


नोट: यह आर्टिकल द अनऑर्गेनाइज़्ड के लिए YKA यूज़र देवेश मिश्रा ने लिखा है।

Exit mobile version