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“फिल्म दिल बेचारा ने जमशेदपुर की यादों को ताज़ा कर दिया”

आज की शाम बहुत खास होने वाली थी ऐसा इसलिए क्योंकि सुशांत सिंह राजपूत की आखरी फिल्म “दिल बेचारा” हॉटस्टार पर आ रही थी। मुझे यह पता था कि लोग इस फिल्म को ज़रूर देखेंगे। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था लेकिन जब मैंने फिल्म देखना शुरू किया और पता चला कि यह फिल्म जमशेदपुर में बनाई गई है, तो मैं काफी भावुक हो गया।

जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ रही थी मेरे आंखों के सामने मेरे ज़िंदगी के सबसे बेहतरीन पल जो मैंने तीन साल इस शहर में बिताए थे सामने आने लगे।

आज यहां मैं फिल्म दिल बेचारा कैसी बनी है , उस पर बात नहीं करूंगा बल्कि जमशेदपुर शहर के बारे मैं लिखूंगा। फिर भी दो लाइन में यही कहूंगा कि फिल्म काफी अच्छी बनी है और लोगों को ज़रूर पसंद आएगी। सुशांत सिंह राजपूत तूम हमेशा लोगों के दिलों में ज़िन्दा रहोगे।

साल 2006 में पहली बार जमशेदपुर शहर पढ़ाई करने के लिए आया था

जैसे ही साकची बाज़ार के गोलचक्कर के पास ऑटो से उतरा मानो समझ ही नहीं पा रहा था कि कहां आ गया। चारों तरफ लोगों का भीड़, गाड़ियों का शोरगुल मानो दिल की बैचनी को बढ़ा दे रही थी। शायद ऐसा इसलिए क्योंकि इससे पहले बेरमो गाँव में ऐसा माहौल नहीं देखे था।

बहरहाल अनजान शहर में भी कुछ अपने मिल गए और राह आसान हो गई। क्योंकि मेरा एक दोस्त विक्की जो अपने गांव का था उसके कुछ रिश्तेदार बिरसानगर में रहते थे। सोनू दा जो कि मेरे दोस्त के मौसी का बेटा है उन्होने मेरी पूरी मदद की। मेरा प्रवेश करीम सिटी कॉलेज में हो जाता है। मेरे से पहले मेरे गांव के कुछ दोस्त पहले ही इस शहर में पढ़ाई के लिए उस साल कॉलेज में प्रवेश ले चुके थे। शायद यही कारण था कि मैं भी उनके पीछे आ गया।

मैं और मेरे दो दोस्त अमित और सूरज ने बारीडीह फ्लैट किराये पर लिया उस वक्त हमको 1500/- रुपये महीने देने पड़ते थे। हमारे दो दोस्त सोनारी में रूम किराये पर लिए थे। हम शहर में नए थे और उम्र की उस दहलीज़ पर थे जहां खुद का फैसला ले सकते थे। मुझे याद है जब हम सारे दोस्त सोनारी से पहली रात ही फिल्म देखने के लिए टाटा नगर स्टेशन के नज़दीक एक सिनेमा हॉल गए थे।

हम जैसे ही सोनारी से बिस्टुपुर पहुंचे मैं मानो उस दुनिया को देख रहा था जो इससे पहले टीवी पे देखा करता था। सड़क के दोनों तरफ बिल्डिंग, साफ़ सुथरी सड़कें। सड़कों के बीचोबीच लाइट के खम्बे और सुन्दर-सुन्दर लड़कियां। महंगी-महंगी गाड़ियां। उसी दिन से इस सहर से प्यार हो गया था। जमशेदपुर शहर कैसे बसा होगा यह उस समय पता नहीं था लेकिन धीरे धीरे समझने लगे थे कि इस शहर में हर समाज के वर्ग के लोग रहते हैं। गांव में सुबह रोटी सब्ज़ी खाने वाले को यहां पोहा, इडली, ढोसा, उपम्मा खाने को मिलने लगे।

जमशेदपुर की एक खास बात जो शहर को खूबसूरत बनाती है

शहर में पुरे भारत के हर कोने से लोग मिल जायेंगे यही इस शहर को खूबसूरत बना देता है। जमशेदपुर में मैंने 24 घंटे बिजली और पानी आते देखा है। जबकि अपने गांव में पानी के लिए मुझे कम से कम 3 किलोमीटर तक जाना पड़ता था। गांव में गर्मी के दिनों में बिजली तो मानो कभी भी चली जाती थी इसलिए जमशेदपुर शहर से प्यार हो रहा था।

हमारे यहां खेलने के लिए खेल का मैदान एक ही था वह भी कम चलने लायक परंतु इस शहर में  हर एरिया में खेलने के लिए खेल का मैदान मिला। ख़ुशी तो तब हुई जब लाइव फुटबॉल मैच JRD स्टेडियम में देखने को मिला। पहली बार इतना बड़ा मैदान देख रहा था। इससे पहले टीवी पर देखते थे मैदान पर इतनी हरयाली मैदान।

जुबली पार्क तो मानो दूसरा घर था 

दोस्तों के साथ इस पार्क में वक्त गुज़ारना, इस लिए बहुत सारी यादें बसी हैं। इतना बड़ा और ख़ूबसूरत पार्क शायद पहले नहीं देखा था और सबसे अच्छी बात यह थी कि यहां आने के पैसे नहीं लगते थे। इसलिए जमशेदपुर के लोगों की भीड़ हमेशा इस पार्क में  मिलती थी। इस शहर में हर तरह के लोग आराम से अपना जीवन यापन कर सकते हैं। यहां आमदनी के हिसाब से सोसाइटी बानी हुई है जैसे सर्किट हाउस अमीरो के लिए थी वहीं बस्ती वाली जगह में मिडिल और लोअर मिडिल इनकम के लोग रहते हैं।

मार्किट भी ऐसे ही बना हुआ है, साकची बाज़ार मिडिल क्लास लोगों के लिए तो बिष्टूपुर अमीरो के लिए। पढ़ाई के लिए अच्छे-अच्छे स्कूल और कॉलेज हैं। फिर भी मुझे लगता है उच्च शिक्षा के लिए कुछ और कॉलेज होने चाहिए। लोग अपनी इनकम के हिसाब से अपने बच्चों को यहां पढ़ाते हैं।

मैंने इस शहर में कुछ पार्ट टाइम जॉब भी किये शायद यह भी एक कारण था जिसकी वजह से मैं जमशेदपुर को अच्छे से देख पाया। ऐसे तो पूरा जमशेपुर मुझे अच्छा लगता है लेकिन टेल्को का एरिया मुझे बहुत पसंद था।

चारों तरफ हरियाली ही हरियाली दिखाई देती थी। सड़कें इतनी साफ मानो आप जन्नत में हैं। भुवनेश्वरी टेल्को मंदिर से पुरा बिरसानगर और बारीडीह देखा जा सकता था। रात के समय में जब भी मौका मिलता था जगमगाती रौशनी को देख कर मन को सुकून मिलता था। तो वहीं इस शहर में पहली बार गुरुद्वारा जाने का मौका मिला। सच कहूं पहली बार जब गुरुद्वारा की दहलीज़ पर ठन्डे पानी में पैर रखते ही दिल को एक अजीब सा सुकून मिला।

चर्च भी इसी शहर में गया, ज़्यादातर गोलमुरी चर्च जाने का अवसर मिला। साकची के बाहर मस्जिद को देख कर सुकून मिलता था और भालूबासा के हनुमान जी की मूर्ति चलती हुई ऑटो से देखने पर एक अलग एहसास दिलाती थी। इस शहर में काफी अच्छे दोस्त बने। पढ़ाई को लेकर सीरियस था लेकिन सब कुछ नया था यहां की ज़िंदगी थोड़ी तेज़ थी और मैं थोड़ा धीमा। बहरहाल चीज़ों को सीख और समझ रहा था। कॉलेज में नाम तो लिखा दिया था लेकिन जाता नहीं था। क्योंकि बारीडीह में ही ट्यूशन और दोस्तों के बीच समय निकल जाता था।

आज इस लेख के द्वारा उन सभी दोस्तों, टीचर्स और परिवार वालों को शुक्रिया कहना चाहूंगा जिन्होंने मेरा हमेशा साथ दिया। इस शहर में रहने के लिए जगह, पढ़ने के लिए अच्छे स्कूल, खाने के लिए काम, मनोरंजन के लिए सिनेमा हॉल, घूमने के लिए पार्क, बाज़ार, धार्मिक स्थल मिल जायेंगे। टाटा स्टील के बारे में ज़्यादा नहीं जनता था। इसलिए उसके बारे में नहीं लिख रहा हुं। फिर भी उस समय बस इतना समझ पाया था कि टाटा स्टील लाइफलाइन है इस शहर की। जिस दिन यह टाटा स्टील नहीं रहेगी मानो जमशेपुर शहर नहीं रहेगा।

शुक्रिया फिल्म दिल बेचारा के सभी सदस्यों का जिन्होंने इतनी खूबसूरत फिल्म बनाई है। जमशेदपुर शहर को इतने अच्छे तरीके से दिखाया है। सुशांत सिंह राजपूत की लास्ट फिल्म हमेशा जमशेदपुर की हर वह छोटे पल की याद दिलाएगी जो मैंने जिया है। आज जो कुछ भी हुं इस शहर का बहुत बड़ा हाथ है। शक्रिया जमशेदपुर।

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