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“स्वतंत्र पत्रकारिता के युग में स्वतंत्र कुछ भी नहीं रहा”

हमें ना रोज़ी-रोज़गार से मतलब है, ना अपनी रोज़ की ज़रूरतों से। मतलब है तो बस हिन्दू मुस्लिम से। क्या कर लेंगे पेट भरके, स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर और शिक्षा प्राप्त करके, जब नौकरी ही नहीं मिलनी और दूसरा रोज़गार नहीं मिलना। बेकार में अपनी एनर्जी को काहे वेस्ट करें।

एक एक्ट्रेस या एक्टर की मौत पर हम 22 घंटे का टीवी शो देख लेते हैं। उनकी मृत्यु दुखद है लेकिन इन खबरों का इस्तेमाल उस सच को पर्दे में रखने के लिए किया जा रहा है, जो सरकार या प्रसाशन नहीं चाहता कि सामने आए। स्वतंत्र पत्रकारिता के युग में, स्वतंत्र कुछ भी नहीं रहा।

फोटो साभार- ट्विटर

सच बोलो तो लोग बुरा मान जाते हैं

आप बोलने के लिए भी कहां तक स्वतंत्र हैं। कई बार मेरी पोस्ट पर ही लोग गाली गलौच और कुतर्क लेकर हाज़िर रहते हैं। बस कोई उनके फेवरेट के बारे में बोल ना दे। इसलिए मेरा कोई फेवरेट नहीं है, बस जिसकी बात सही लगी तारीफ कर देता हूं, क्योंकि मेरी सोच स्वतंत्र है।

हमने आवाज़ उठानी बंद कर दी है, वह भी इस डर से कि कहीं कोई धमकी ना आ जाये। कहीं कोई आपका नज़दीकी बुरा ना मान जाये।काफी साल पहले की बात है एक 50 साल के पढ़े लिखे जनाब ने गाली देना पसंद किया लेकिन मेरी बात का जवाब देना नहीं। लेकिन मूर्खो से तर्क करना बेकार है।

स्वच्छता अभियान के नाम पर शहर की सफाई के साथ-साथ गरीब का पेट भी साफ हो रहा है। रेड़ी पटरी वालो पर जो कहर इस बार बरपा है वह कभी नहीं बरपा था। उनमें से अधिकतर सोशल मीडिया पर नहीं है, तो सोचा उनकी बात मैं ही रख दूं।

प्रतीकात्मक फोटो

आखिर साफ शहर किसके लिए है? क्या सिर्फ अमीरों के लिए? क्या गरीबों का अधिकार नहीं है इसमें कमाने खाने का?। हां, वह दूसरा काम ढूंढ लेंगे। हो सकता है उनमें से कोई भीख मांगने को तैयार हो रहा हो लेकिन आप में से कुछ को शायद वह  मजबूरी भी मंजूरी नज़र नहीं आएगी।

मैं ये किसी सरकार के खिलाफ नहीं कह रहा। बस एक विचार रख रहा हूं कि आंखें खोलिये आवाज़ उठाइये क्योंकि आपकी आवाज़ एक बार दब गई तो फिर ये कभी खुलकर सामने नहीं आ पाएगी।

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