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“टीबी की दवा के साइड इफेक्ट्स के कारण मेरी आंखों की रौशनी चली गई”

टीबी के आंकड़ों से पता चलता है कि देश पर टीबी का कितना बोझ है लेकिन टीबी की वजह से मरीज़ पर कितना बोझ है, यह सच्चाई सिर्फ मरीज़ बता सकते हैं।

मैं अपनी कहानी के ज़रिये बताना चाहती हूं कि हम मरीज़ महज़ आंकड़े नहीं, इंसान हैं जिनकी ज़िन्दगी एक ऐसी बीमारी से बेवजह त्रसित हो रही है, जिसका इलाज है लेकिन इससे लड़ने में हमें पर्याप्त सहारा नहीं मिल रहा है। अक्टूबर 2017 की बात है। मेरे गले में तीन चार गांठ बन गई थी, बुखार और खांसी भी थी।

मैं सरकारी अस्पताल गई जहां जांच के बाद मुझे सिर्फ यह कहकर दवा दी कि ये मेरी गांठ की सूजन को कम करेंगी। दवा लेने के एक महीने बाद मैं बेहतर महसूस करने लगी तो मैंने दवाएं बंद कर दी लेकिन फरवरी 2018 में मेरी तबीयत फिर से खराब हो गई। गले में गाठें बड़ी हो गईं, बुखार आने लगा और बहुत कमज़ोरी थी। इस बार दूसरे सरकारी अस्पताल गई, जहां दोबारा बायोप्सी और अल्ट्रासाउंड जांच हुई।

अस्पताल की लापरवाही

जांच की प्रक्रिया काफी दर्दनाक थी। वहां जूनियर स्टाफ ने बिना मेरे गले को सुन्न किए ही बायोप्सी के लिए सुई घुसा दी। सही जगह मिल नहीं रही तो तीन-चार बार वो सूई मेरे गले में भोंकते रहे। आखिरकार मुझे बहुत दर्द होने लगा तो उनके सीनियर को बुलाया, जिन्होंने सही ढंग से बायोप्सी की।

जांच से पता चला मुझे गांठ का टीबी है। यहां के डॉक्टर जानकर आश्चर्यचकित थे कि मैं जिस अस्पताल में पहले गई थी, वहां मुझे जांच के बाद भी बताया नहीं कि मुझे टीबी है। यहां डॉक्टर ने मेरा टीबी का इलाज शुरू किया और समझाया कि मुझे ये दवा 6 महीने तक बिना रोके लेनी है।

मेरी टी.बी और उसके साथ चुनौतियां

पांच महीने तक तो मैंने उलटी, भूख मर जाना, शरीर में गर्मी महसूस होना जैसे साइड इफेक्ट्स के बावजूद दवा ली फिर मेरी दोनों आंखों की रौशनी पूरी तरह चली गई। जब आंख के डॉक्टर के पास गई तो उन्होंने बताय कि यह टीबी की दवा का साइड इफेक्ट है।

मेरे टीबी डॉक्टर ने मुझे यह बताया तक नहीं था कि दवा का ऐसा साइड इफेक्ट होता है। अगर बताया होता तो कम-से-कम मैं समय-समय पर आंखों की जांच तो कराती रहती फिर शायद यह नौबत नहीं आती। आखिर ऐसी दवाइयां मुझे दी क्यों? क्या इससे बेहतर दवाइयां नहीं दे सकते टीबी के मरीज़ों को?

बीमारी के साथ-साथ बच्चों के भरण-पोषण के लिए जद्दोजहद

खैर, मेरी टीबी के डॉक्टर ने फिर मेरी दवा बंद की और मुझे नई दवाओं पर डाला, जो मुझे 6 महीने और लेनी थी लेकिन ये दवाई सरकारी अस्पताल में नहीं थी, तो मुझे बाहर से हर महीने 1000 रुपये खर्च करके खरीदनी पड़ती थी। उसके ऊपर अब आंखों की दवा का खर्च अलग।

आमदनी में हर महीने किराये पर लगाए कमरों से सिर्फ तीन हज़ार रुपये ही आते थे। मेरे पति की मृत्यु 2013 में ही हो गई थी तो घर में कमाने वाला भी नहीं था। मुझे अकेले ना सिर्फ अपने इलाज का ख्याल रखना था, बल्कि अपने तीन बच्चों का पेट भी भरना था।

एक टीबी के मरीज़ को जैसे पौष्टिक आहार चाहिए, मुझे नहीं मिल पाते थे क्योंकि मेरे पास उतने पैसे नहीं थे और ना ही सरकारी डॉक्टर ने उस वक्त मुझे सरकार की निक्षय पोषण योजना के बारे में बताया, जिसके अंतर्गत टीबी मरीज़ों को पोषण की ज़रूरतें पूरी करने के लिए पैसे दिए जाते हैं। मेरी आंखों के डॉक्टर का मानना था कि अगर मुझे ऐसा आहार मिल रहा होता, जिसमे प्रोटीन की मात्रा ज़्यादा है तो मेरी दवा का आंखों पर इतना बुरा असर नहीं होता।

मुझे लोगों से दवा के पैसे उधार लेने पड़े

दो वक्त की रोटी और तीन बच्चों को पालना-पोसना ही इस हद तक आर्थिक रूप से भारी पड़ रहा था कि मुझे लोगों से दवा के पैसे उधार लेने पड़े। ऐसे में अपने लिए पौष्टिक आहार कहां से लाती? मेरे इलाज और मेरी आर्थिक स्थिति का मेरे मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ा। शारीरिक और मानसिक थकान की वजह से लगता था कि पूरा दिन बस सोती रहूं। मैं पूरी तरह से हिम्मत हार चुकी थी।

लेकिन अगर मैं सोती रहती तो मेरे बच्चों को कौन देखता?  वे पहले ही अपने पिता को खो चुके थे, अगर मैं हार मान लेती तो डर था कि वे अपनी माँ को भी ना खो दें।

और मैंने टी.बी को हरा दिया

बच्चों के प्यार ने मुझे इस बीमारी से लड़ने का हौसला दिया। जब मेरी एक आंख में थोड़ी रौशनी वापस आ गई, तो उससे भी थोड़ी राहत मिली। रोज़ मैं दवा खाकर घर के कामों में अपने आप को व्यस्त रखती थी। जब दिल घबराने लगता तो अपने बच्चों से हंसती बोलती, उनके साथ फिल्में देखती। देखते ही देखते ग्यारह महीने निकल गए। आज भी मुझे एक आंख से कुछ दिखाई नहीं देता है लेकिन मैंने टीबी को हरा दिया।

सभी मरीज़ इस बीमारी को हरा नहीं पते हैं। इसलिए नहीं कि यह बीमारी लाइलाज है, बल्कि इसलिए कि हमारी स्वास्थ्य सेवाओं में मरीज़ की तकलीफ और ज़रूरतों पर ध्यान ही नहीं दिया जाता। सिर्फ इलाज पूरा करने पर ज़ोर है। मरीज़ को ज़रूरत है अपनी बीमारी और इलाज के बारे में पूरी जानकारी की, ताकि वे अपनी हालत समझ सके और इलाज में उसे कम से कम तकलीफ हो। यह जानकारी देना डॉक्टर का फर्ज़ है।

ज़रूरत है बेहतर दवाइयों की जिनके कम साइड इफेक्ट्स हों। ज़रूरत है कि सरकार मरीज़ को आर्थिक सहारा दे ताकि वे अस्पताल आने जाने और पोषण का खर्च उठा पाए। डॉक्टर्स, अस्पताल स्टाफ, परिवार और समाज मरीज़ से भेदभाव ना करें, संवेदनशील व्यवहार करें।

जब सरकार देश की फौज को बिना हथियार दिए जंग में लड़ने नहीं भेजती, तो टीबी से इस जंग में मरीज़ों को बिना पर्याप्त सहारा दिए टीबी से निहत्था लड़ने क्यों भेज रही है?


नोट: रीना देवी एक टीबी विजेता हैं, जिन्होंने कड़े साइड इफेक्ट्स का सामना किया है।

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