Site icon Youth Ki Awaaz

इतिहास के पन्नों में गाँधी और सुभाष के बनते-बिगड़ते विचारों की दास्तां

आज़ादी की छिटपुट लड़ाई और राष्ट्रीय आंदोलनों के दौर सविनय अवज्ञा आंदोलन के बाद लगभग कम हो गये थे। आज़ादी की इस लड़ाई में त्रिपुरी संकट से उत्पन्न राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई हुई, जिसमें महात्मा गाँधी को सुभाष चन्द्र बोस द्वारा मुह की खानी पड़ी।

गाँधी की निराशा और बोस का इस्तीफा

कहानी बड़ी दिलचस्प है काँग्रेस के 1939 में अध्यक्ष पद के लिए चुनाव होने थे। गाँधी पट्टाभि सीतारमैया को त्रिपुरी (जबलपुर) के काँग्रेस अधिवेशन के लिये अध्यक्ष बनाना चाहते थे। जबकि सुभाष चन्द्र बोस नें स्वयं को ही काँग्रेस पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था।

सुभाष चन्द्र बोस ने कहा कि चुनाव का आधार देशहित से संबंधित नई विचारधाराओं और भारत को आगे ले जाने में सक्षम उम्मीदवार होना चाहिये। जबकि गांधी जी द्वारा समर्थित पट्टाभि सीतारमैया से पहले मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपना नाम वापस ले लिया था।

चुनाव हुआ और सुभाष चन्द्र बोस 1377 मतों के मुकाबले 1580 मत पाकर विजयी हुए। पट्टाभि सीतारमैया को दक्षिण पंथी सभी नेताओं सरदार बल्लभ भाई पटेल , राजेन्द्र प्रसाद और जे बी कृपलानी का समर्थन प्राप्त था।

गाँधी ने इस चुनाव के बाद कहा कि पट्टाभि की हार पट्टाभि से अधिक मेरी हार है। इसके बाद सुभाष चन्द्र बोस पर आधारहीन आरोपों का सिलसिला प्रारंभ हो गया तथा कांग्रेस कार्यकारिणी के 15 सदस्यों में से 13 ने इस्तीफा दे दिया। जिसमें जवाहर लाल नेहरू, जो कि सुभाष चन्द्र बोस के मित्र और विचारधारा के समर्थक भी थे, शामिल थे।

फलस्वरूप नेता जी नें व्यथित होकर इस्तीफा दे दिया।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस, फोटो साभार- सोशल मीडिया

काँग्रेस से नेता जी को अलग करने की साजिश

1 मई 1939 को फारवर्ड ब्लॉक का गठन किया । इसके बाद काँग्रेस के अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद बनें।

काँग्रेस से नेता जी को अलग करने की एक साजिश रची गयी। जिसके तहत अब काँग्रेस कार्य समिति के अनुमति के बिना कोई भी सदस्य आंदोलन नही कर सकता था। यह एक पक्षपातपूर्ण प्रस्ताव था क्योंकि स्वराज पार्टी का काँग्रेस के भीतर कभी विरोध नहीं हुआ। हालांकि इसका फिर काँग्रेस में विलय हो गया।

जब सुभाष चन्द्र बोस ने इसकी आलोचना की तो उन्हें बंगाल कार्य समिति के साथ साथ कांग्रेस से तीन वर्ष के लिये निष्कासित कर दिया गया। गाँधी कुछ भी रहे हों परंतु उनके सानिध्य में बैठे नेता ही यह सबकुछ कर रहे थे जो कि एक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर आक्रामक प्रहार था। इसमें यह कहा जा सकता है कि गांधी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को सर्वोपरि मानते थे।

राजनीतिक महत्वकांक्षा का उदय तो पहले ही हो गया था परंतु अब इसकी जड़ें मज़बूत होने लगीं। इसमें कहा जा सकता है कि गाँधी एक नाम तो था परंतु मतभेदों से भरे ऐसे नेता को पूरी तरह से स्वीकार करना हम गलत मानतें हैं। एक छोटी सी लड़ाई जिसमें गाँधी को हार का सामना करना पड़ा था, उसने एक नेता को काँग्रेस से बाहर कर दिया।

सुभाष अपने मार्ग से कभी डिगे नहींं

यह एक देशभक्त की राजनीतिक चेतना पर कड़ा प्रहार था परंतु सुभाष अपने मार्ग से कभी डिगे नहींं। 1940 में नेता जी को पुनः गिरफ्तार कर लिया गया और उनके घर में ही इनको नज़रबंद कर दिया गया। 17 जनवरी 1941 को सुभाष एक पठान जियाउद्दीन के छद्मवेश में पुलिस को धोखा देकर कलकत्ता पेशावर व काबुल होते हुए रूस पहुंचे।

इस समय रूस के द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान मित्र राष्ट्रों में शामिल होनें के कारण इनको बर्लिन जाना पड़ा। जर्मनी में बोस ने फ्री इंडिया सेंटर की स्थापना की तथा इस संस्था के माध्यम से सुभाष चन्द्र बोस नें जय हिंद का नारा दिया तथा यहीं पर फ्री इंडियन लीजन नामक सेना गठित की और यहीं पर सुभाष जी को भारतीयों द्वारा नेता जी की उपाधि मिली ।

गाँधी का अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन, एक सही समय पर लिया गया फैसला था क्योंकि  ब्रिटेन उस समय द्वितीय विश्व युद्ध में घिर गया था। उधर जापान द्वारा सिंगापुर मलाया से बर्मा तक अधिकार कर लिया गया था। भारतीयों  को जापान द्वारा समर्थन दिया जाना रास बिहारी बोस और सुभाष चन्द्र बोस जैसे व्यक्तियों की देन थी।

जापान का समर्थन

जून 1943 में जब सुभाष जापान पहुंचे तो वहां के प्रधानमंत्री तोजो द्वारा स्वागत किया गया। नेता जी नें वहीं टोक्यो रेडियो के माध्यम से स्वतंत्रता का प्रथम संदेश भारतीयों को पहली बार दिया।

जापान द्वारा पंजाब रेजीमेंट की टुकड़ी के हार जाने पर अंग्रेज़ पीछे हटनें लगे परंतु जापानी सेना ने भारतीय सैनिकों को कैप्टन मोहन सिंह के सुपुर्द कर दिया।

यहां पर भी जापान का सहयोग सुभाष चन्द्र बोस की प्रमुख सहभागिता से मिला। जब ज्ञानी प्रीतम सिंह और जापानी मेजर आईवाची फोजीआरा नें इंडियन नेशनल आर्मी के गठन का सुझाव कैप्टन मोहन सिंह को दिया तो मोहन सिंह तैयार हो गए लेकिन सैनिकों की संख्या को लेकर जापानी सेना से मतभेद होने पर मोहन सिंह नें इसका विघटन कर दिया।

सुभाष चंद्र बोस एवम आज़ाद हिंद फौज, फोटो साभार- सोशल मीडिया

 

इसी बीच रास बिहारी बोस नें कैप्टन मोहन सिंह को बर्खास्त कर दिया और 4 जुलाई 1942 को सुभाष चन्द्र बोस इसके सर्वोच्च सेनापति  बनें यही आईएनए ही आज़ाद हिंद फौज कहलाया। 21 अक्टूबर 1943 को नेता जी नें सिंगापुर में अस्थाई सरकार का गठन किया और स्वयं इसके प्रधानमंत्री बनें इसको ही आजाद हिंद सरकार कहा गया जिसका मुख्यालय रंगून में था।

इस सरकार को नौ देशों जापान, जर्मनी, चीन, इटली, कोरिया, फिलीपींस, बर्मा, मांचुको और आयरलैंड नें मान्यता प्रदान की। इसी सरकार ने 23 अक्टूबर 1943 को मित्र राष्ट्रों के खिलाफ, जिसमें ब्रिटेन था, के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। इसी सरकार ने जन गण मन को राष्ट्र गान, जय हिंद अभिवादन, कांग्रेस के तिरंगे को राष्ट्र ध्वज तथा हिंदुस्तानी भाषा को राष्ट्र भाषा घोषित किया।

यहीं से नेता जी ने ‘दिल्ली चलो’ तथा ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा’ के नारों से भारतीयों को वास्तविक बलिदान का एहसास कराया। गाँधी, नेहरू और आज़ाद ब्रिगेड के साथ-साथ महिलाओंं के लिये रानी लक्ष्मीबाई रेजीमेंट भी बनाया। जापान नें 8 नवम्बर 1943 को अंडमान तथा निकोबार द्वीप को भारत को दे दिया। नेता जी नें इसके नाम क्रमशः शहीद द्वीप तथा स्वराज द्वीप रखे।

गाँधी की अहिंसक विचारधारा

30 दिसंबर 1945 को दोनों द्वीपों पर तिरंगा फहराया गया। 6 जुलाई 1944 को सुभाष चन्द्र बोस नें आज़ाद हिंद फौज के एक रेडियो प्रसारण में महात्मा गाँधी को संबोधित करते हुए कहा

भारतीय स्वाधीनता का आखिरी युद्ध शुरू हो चुका है राष्ट्रपिता!

भारत की मुक्ति के इस युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएं चाहते हैं। 18 अगस्त 1946 को टोक्यो जाते समय एक विमान दुर्घटना में इनकी मृत्यु हो गई। जो कि आज तक सत्यापित नहीं हो सकी है ।कुछ लोग मानतें हैं कि फैजाबाद कैंट के पास रहने वाले मौनी बाबा ही सुभाषचंद्र बोस थे हालांकि तीन साल पहले उनकी मृत्यु हो चुकी है।

उधर 8 अगस्त 1942 को गाँधी जी के अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन तथा  करो या मरो के नारे के साथ यह संकल्प भी व्यक्त किया गया गया था

 या तो हम भारत को आज़ाद कराएंगे या इस कोशिश में अपनी जान दे देंगे।

सबसे आगे बढ़कर गाँधी ने भारतीयों द्वारा हिंसक कार्यों को न्यायोचित ठहराते हुये कहा,

यह एक निराश जनता की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।

इस  तरह अहिंसा के पुजारी गाँधी ने अपनें अहिंसा के सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप दिया। इससे कहा जा सकता है कि गाँधी की अहिंसक विचारधारा नित्य विकासशील थी। इन्होंने हिंसा में अहिंसा को अपनाया और अहिंसा को आदर्श ना मानकर एक व्यावहारिक रूप देकर देशहित में नैराश्य से भरपूर जनता के सभी कार्यों का समर्थन किया, चाहे उसमें हिंसा ही क्यों ना रही हो।

गाँधी एवं सुभाष चंद्र बोस , फोटो साभार- सोशल मीडिया

दोनो महापुरुष देश के लिए महत्वपूर्ण

विचारों से समाजवादी सुभाष चन्द्र बोस ने गाँधी के सानिध्य को भारत में रहते हुए कभी स्वीकार नहीं किया परंतु बाहर रहकर देशहित से संबंधित सभी कार्यों को बखूबी अंजाम देकर गाँधी को राष्ट्रपिता तक बना दिया।

ऐसे समय में जहां नेहरू समाजवादी विचारधारा को अपनाकर गाँधी की विचारधारा के प्रबल समर्थक थे, जहां गाँधी की विचारधारा समस्त विचारधाराओं के लिये एक अम्ब्रेला का काम किया, वहीं वैचारिक मतभेद होते हुए भी सुभाषचंद्र बोस ने देशहित के कार्यों में गांधी को सर्वोच्च घोषित कर दिया।

आज भी हम गाँधी और सुभाष को लेकर राजनैतिक भेदभाव के चलते गलत और सही साबित करते रहे हों परन्तु दोनों महापुरुष असीम संभावनाएं भरे देश के लिये अपनें प्राणों को भारत माता के श्री चरणों में समर्पित कर गये।

गाँधी जैसा हाड़ मांस का मानव जिसने जनता की भावनाओं को समझा पढ़ा और अपने खिलाफ विरोध को सही तरीके से स्वीकार किया, जिसके आगे सुभाष चंद्र बोस जैसे समाजवादी विचारधारा के लोग नतमस्तक हो गए हों ऐसा व्यक्ति अब लौटकर नहीं आएगा ।

Exit mobile version