देशभर में ही नहीं दुनियाभर में घरेलू और सार्वजनिक दायरे में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की घटनाएं देखने को मिलती हैं, इस तथ्य से कोई आम समझ वाला इंसान इंकार नहीं कर सकता है।
जब महिलाओं के खिलाफ जघन्य मामले मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देते हैं, तो समाज का बड़ा तबका कठोर कानून की मांग करने लगता है। कठोर कानून की मांग करने के बीच यह सवाल समाज से पूछा जाना चाहिए कि क्या कठोर कानून बन जाने से ही महिलाओं के प्रति उनकी सामाजिक सोच में बदलाव आएगा या वह जस की तस बनी रहेगी?
इस हिंसा में हर धर्म, जाति, वर्ग के लोग शामिल
हर रोज़ हमारे सामने एक नहीं कई घटनाएं सामने आती हैं, जो दर्शाती हैं कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में हर धर्म, जाति और वर्ग के लोग शामिल हैं। महिलाओं की पूरी आबादी के खिलाफ हिंसा की जैसे एक रेस चल रही है, जिसमें हर धर्म, जाति और वर्ग के लोग एक-दूसरे को पीछे छोड़ना चाहते हैं, कोई अपवाद भी बचा हुआ नज़र नहीं आता है।
एक नई प्रवृत्ति ने जन्म ज़रूर ले लिया कि हम महिलाओं के साथ होनी वाली हिंसाओं को कभी जाति के तो कभी धर्म के वर्गीकरण में बांटकर देखने लगे हैं, जिसका फायदा राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने और समाज के सामाजिक सद्भाव को कमज़ोर करने के लिए उठाते हैं, जबकि यह मामला पुरुष वर्ग का महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा का है।
इन घटनाओं के पीछे की जघन्य सोच पर बात होनी ज़रूरी है
हर एक जघन्य घटना के बाद फिर से कड़ी सज़ा की मांग उठने लगती है पर यही समाज जघन्य घटनाओं के उन कारणों पर ध्यान नहीं देना चाहता है, जहां से महिलाओं के विरुद्ध जघन्य हिंसा करने की सोच पनपनी शुरू होती है।
ज़ाहिर है समाज उन कारणों के बारे में या तो जानता नहीं है या जानकर भी उन कारणों को नज़रंदाज कर देता है, जो दुष्कर्म ही नहीं आधी आबादी के खिलाफ हिंसा का कारण बनती हैं।
यही वजह है कि महिलाओं के खिलाफ हिंसा का मामला एक राजनीतिक प्रश्न तो बन रहा है पर राजनीतिक दलों के बीच राजनीतिक फुटबॉल की तरह एक पाले से दूसरे पाले में ठेला जा रहा है। पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर महिला सुरक्षा के प्रति संवेदना शून्यता का आरोप लगाकर राजनीतिक रोटी सेंक रहे हैं।
महिलाओं के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा के मामलों के आकंड़ों में कमी करने के लिए समाज को अपनी सामाजिक अधिरचना पर चोट करनी होगी। उस मर्दवादी सोच पर चोट करनी होगी, जो आधी आबादी को या तो दोयम दर्जे का नागरिक मानता है या किसी भी तरह की समानता और स्वतंत्रता के लायक नहीं मानता है।
इस स्थिति के निमार्ण के लिए समाज को क्या करना चाहिए?
ऐसा कतई नहीं है कि इसका जवाब समाज या समाजशात्रियों के पास नहीं है। समाज ने अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वाह इस दिशा में ईमानदारी के साथ अब तक नहीं किया है। अगर किया भी है तो वह बहुत ही सीमित स्तर पर।
समाज को अपने समाजीकरण की प्रक्रिया को पुर्नपरिभाषित करना होगा, समाज को आधी आबादी को वस्तु या आइटम समझने वाले भाव को ध्वस्त करना होगा, आधी आबादी के प्रति संवेदनशील नज़रिए का विकास करना होगा।
प्रख्यात नारीवादी सिमोन द बुआ कहती हैं, “स्त्री पैदा नहीं होती है, स्त्री बनाई जाती है।” उसी तर्ज़ पर यह वाक्य भी सौ फीसद सच है, “मर्दवादी समाज पैदा नहीं होता है, उसे बनाया जाता है।”
मर्द को कभी दर्द नहीं होता है, मर्द कभी रोते नहीं हैं, क्या लड़कियों की तरह रो रहे हो, पुरुष-महिलाओं से अधिक मज़बूत होते हैं, इस तरह के शब्दों के समाजीकरण पुरुषों के अंदर एक असंवेदनशील मर्द को गढ़ता है, जो आधी आबादी के किसी भी स्त्री को चाहे वह बच्ची हो या युवती हो या उम्रदराज़ महिला सबों को बस अनादर और लोलुपता से ही देखता है।
वह आधी आबादी के साथ किसी भी तरह की हिंसा को जायज़ मानने लगता है। मर्दवादी समाज को लगता है जो आबादी उससे कमज़ोर है, उसे उसके विरुद्ध कुछ भी बोलने का अधिकार है। इसलिए कभी कपड़ों तो कभी मोबाइल फोन के इस्तेमाल पर फतवा जारी करता रहता है। समाजशास्त्री इसको “वर्चस्वशाली मानसिकता” के रूप में परिभाषित करते हैं।
आधी आबादी के खिलाफ किसी भी तरह की हिंसा पर घरयाली आंसू बहाने वाला समाज अगर सचमुच महिलाओं के प्रति संवेदनशील है तो कठोर कानून की मांग के साथ-साथ, अपने अंदर की मर्दवादी मानसिकता के कु-पाठ को पुर्नपरिभाषित करना होगा। उसको यह समझना होगा कि उसने अपने समाजीकरण में जिस फसल को बोया है, उसको जड़ समेत उखाड़ना पड़ेगा।
समाज ने अपने समाजीकरण में जिस मर्दवादी पुरुष को गढ़ा है, वही समस्या की मूल जड़ है। जिसको काटकर, जलाए बिना समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व आधारित समाज का निर्माण कभी नहीं किया जा सकता है। फिर चाहे महिलाओं के खिलाफ किसी भी हिंसा के कितने ही कठोर कानून बना लो, सब निर्मूल ही साबित होंगे।