कुछ सवाल हैं, हालांकि सवाल तो बहुत से हैं लेकिन अभी बस कुछ ही सामने रखता हूं। अगर आपके पास एक गुड़िया और एक मोटर कार का खिलौना है, तो इनमें से आप कौन सा खिलौना लड़की को देंगे और कौन सा लड़के को? आपके पास एक फ्रॉक है और एक पैंट है तो इनमें से कौन से कपड़े आप लड़की को देंगे और कौन से लड़के को?
अगर आपका एक बेटा है और एक बेटी है, आप किसी एक ही बच्चे को तथाकथित महंगे/अच्छे/निजी स्कूल में पढ़ा सकते हैं, तो आप किसे पढ़ाएंगे बेटे को या बेटी को? आपके बच्चे बड़े हो रहे हैं, आप बेटी और बेटे को अलग-अलग काम और व्यवहार सिखाएंगे या एक जैसे? घर से अकेले बाहर जाने और देर तक बाहर रहने की छूट आप किसे दे देते हैं, बेटे को या बेटी को?
आपको क्या लगता है, घर के सारे काम किसे करने चाहिए महिला को या पुरुष को? विवाह से पहले स्त्री को सम्भोग नहीं करना चाहिए, हां या न? विवाह के बाद पहले सम्भोग में रक्त-स्राव का होना या न होना स्त्री की पवित्रता को सिद्ध करता है, हां या न? हर बात पति से पूछकर करने वाली महिला संस्कारी होती है या पति की गुलाम? तो हर बात पत्नी से पूछकर करने वाला पुरुष, जोरू का गुलाम होता है या संस्कारी?
क्या ज़्यादातर सवालों के जवाब में आपने पहले विकल्प को चुना है। अगर यही सवाल अलग-अलग धर्मो, वर्गों या जातियों के लोगों से पूछा जाए तो क्या इन सवालों के जवाब बदल जायेंगे? यह एक अहम् सवाल है, जिसे महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, शोषण, गैर-बराबरी को किसी जाति, वर्ग या धर्म के लिफाफे में कैद करने से पहले बार-बार पूछा जाना, टटोला जाना ज़रूरी है।
शोषण के मुखौटे की बाहरी रंगत के नीचे कई धूसर परतें दबी हैं
जब सभी धर्मो, वर्गों, जातियों में एक समानता हो कि वह लैंगिक या जैविक पहचानों के आधार पर पालन, पोषण, अवसर, भागीदारी में असमान व्यवहार करते हों, तब महिलाओं के साथ हो रही हिंसा पर किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष का लेबल लगाना क्या उचित है।
शोषण के मुखौटे की बाहरी रंगत के नीचे कई धूसर परतें दबीं हैं। इसे सिर्फ स्याह-सफेद नज़रिये से नहीं देखा जा सकता है। बेशक महिलाओं के साथ हो रही हिंसा और अत्याचार में धर्म, जाति, वर्ग, लैंगिकता और राजनीति अहम भूमिका निभाती है लेकिन इस हिंसा के मूल कारणों की पड़ताल करना भी बेहद ज़रूरी है।
अगर आंकड़ों के तराज़ू में तौला जाए तो महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा में कोई धर्म, जाति, वर्ग, यहां तक कि देश भी पाक दामन नहीं है। पूरे विश्व में 100 सौ करोड़ औरतें हैं। यानी हर तीसरी औरत हिंसा के विभिन्न औज़ारों की धार पर हैं। जिसकी पुष्टि संयुक्त राष्ट्र संघ कर चुका है। महिलाओं के साथ हो रही हिंसा विश्व-व्यापी और पुरातन है, जिसका अर्थ है कि औरतों के साथ अमूमन हर देश और संस्कृति में बरसों से शोषण, हिंसा और अत्याचार हो रहा है।
जिन सवालों के साथ इस विमर्श की शुरुआत की थी वह इस बात की इशारा करते हैं कि लड़के और लड़कियों की परवरिश और समाजीकरण में दोहरे या गैर-बराबरी के मापदंड अपनाये जाते हैं।
बेशक इन मापदंडों को समाज ने तय किया है लेकिन समाज किसी दूसरे गृह पर बसने वाला समुदाय नहीं है। इसे हम और आप ही बनाते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों ही इस समाज का हिस्सा हैं, फिर दोनों के लिए अलग कायदे, अलग व्यवहार, अलग पहनावा, अलग ज़िम्मेदारियां, अलग अधिकार क्यों तय हुए, एक बराबर क्यों नहीं। ज़ाहिर है यह सब स्त्री की सहमती से तो तय नहीं हुआ होगा।
प्रकृति ने औरत और मर्द में कुछ विभिन्नताएं रची हैं लेकिन फर्क नहीं किया
प्रकृति ने औरत और मर्द में कुछ विभिन्नताएं रची हैं लेकिन फर्क या भेदभाव नहीं किया। वह तो समाज है जिसने इन विभिन्नताओं के आधार पर दोनों के लिए गैर-बराबरी के नियम बना डाले। इन गैर-बराबरियों की तह में कोई देश, धर्म या सम्प्रदाय नहीं, एक ताक़त है, एक सत्ता है, जिसका नाम है पितृसत्ता।
पितृसत्ता ही वह व्यवस्था है जिसने पुरुषों को ताकतवर बनाने और स्त्री सहित अन्य सभी लैंगिक पहचानों वाले मनुष्यों को कमज़ोर, दबा, कुचला रखने के लिए भेदभावपूर्ण नियम, कायदे, कानून और धर्म रचे।
पितृसत्ता ने महिलाओं का ही नहीं, पुरुषों का भी शोषण किया
पितृसत्ता ने पुरूषों के अलावा अन्य सभी लिंगों को शोषित रखने के लिए पुरुष या मर्द के लिए जो आवश्यक छवि गढ़ी उसने पुरुषों का भी शोषण किया। कई पुरुष यह महसूस करते हैं कि उनसे हमेशा बहादुर, बलिष्ठ, रक्षक, सख़्त और कमाऊ बने रहने की अपेक्षा की जाती है जिससे उन पर एक दबाव और तनाव बना रहता है। जहां एक ओर सामाजिक रूप से तथाकथित असली मर्द की परिभाषा के दायरे में न आ पाने पर वह हीनभावना और उपहास के पात्र बनते हैं। वहीं दूसरी ओर ज़बरदस्ती उसी सामाजिक छवि के अनुरूप व्यवहार करने की वजह से कई स्नेह भरे सम्बंधों में उनके हिस्से सिर्फ शुष्क खामोशी आ पाती है।
फर्ज़ कीजिये अगर स्त्री और पुरुष में जो सामाजिक फर्क बनाये गए हैं अगर वे ना होते तो क्या होता। वह अपने मन मुताबिक कपड़े, बाल, रंग, खेल, खिलौने, श्रृंगार, चाल, व्यवसाय आदि चुनते हैं। वह अपनी प्राकृतिक विभिन्नता के आधार पर विभिन्न, अलहदा, विशिष्ट पह्चान पाते हैं न कि पहले, दूसरे, या तीसरे दर्जे में बांटे जाते हैं। उन्हें एक जैसे हक मिलते हैं और वह बराबरी से फर्ज़ भी निभाते हैं।
पुरुष को श्रेष्ठ बनाने की जद्दोजहद
महिलाओं के साथ हिंसा किसी धर्म, जाति या सम्प्रदाय विशेष में नहीं है, इसका कारण अंतर-धार्मिक विवाह खासतौर पर हिन्दू-मुस्लिम विवाह या तथाकथित “लव जिहाद” नहीं, बल्कि “लव ऑफ पॉवर” है। यानि सत्ता से प्यार, हमारा समाज इस सत्ता को हासिल करने की ललक पुरुष में जगाता है।
वह पुरुष को ताकतवर, स्त्री से श्रेष्ठ और हुक्मरान बनाने के लिए इसी तर्ज़ पर उनका समाजीकरण करता है। उन्हें तमाम सहूलियतें देता है और यही समाज संस्कारों के नाम पर, रीति-रिवाजों के नाम पर, प्यार के नाम पर, औरतों को घर मे बंद रखता है। उन्हें हर किस्म की आज़ादी से महरूम रखता है।
खुद को ताकतवर समझने की होड़
हिंसा का कारण हमेशा ताकत से प्यार होता है। खुद को ताकतवर रखने, साबित करने और ताकत के सुख को भोगने के लिए भेदभाव और हिंसा का प्रयोग होता आया है और हो रहा है। जब तक भेदभाव नहीं मिटाया जाएगा, तब तक हिंसा का मिटना भी नामुमकिन है। इसकी शुरुआत हमें अपने घरों से करनी होगी।
अपने बच्चों को एक जैसा लालन-पालन, शिक्षा, व्यवहार, अवसर देने होंगे। हर बदलाव का आरंभ स्वयं से करना होता है। जब हम स्वयं बदलते हैं, तब हमारे चारों ओर का परिदृश्य धीरे-धीरे बदलना शुरू होता है लेकिन बदलता ज़रूर है।