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वेब सीरीज़ के नाम पर क्या शहरी आधुनिकता गाँव की सादगी खत्म कर रही है?

भारत में आये दिन महिलाओं के प्रति दरिंदगी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है और हम लोग आसानी से ऐसी घटनाओं पर चुप रहते हैं। जिसका खामियाज़ा गरीब घर की लड़कियों को भुगतना पड़ता है। क्योंकि उच्च न्यायपालिका तो क्या जनता के दरबार में भी न्याय नहीं मिलता। ऐसे में सोचना यह है कि क्या हम सब शहरी बदलाव के कारण कहीं महिलाओं की जान खतरे में तो नहीं डाल रहे हैं।

वेब सीरीज़ के नाम पर परोसी जा रही अश्लीलता पर सवाल कब उठेंगे?

आज हमारे पास स्मार्टफोन हैं जिसकी उपलब्धता हर जगह है और इंटरनेट भी।  आज देश की हर खबर हर जन-जन तक पहुंच रही है। सिर्फ घर बैठ कर इंसान अब संसार की सारी जानकारी ले सकता है लेकिन हर चीज़ का फायदा और नुकसान दोनों होते हैं। भारत की बात की जाए तो इसके नुकसान ज्यादा मिलेंगे और उनमें से एक है बढ़ती अश्लीलता। वैसे यह लेख महिलाओं के खिलाफ नहीं है और न ही उनकी स्वंत्रता हनन कर रहा हूं।

आज हमारे पास ना जाने कितने प्लेटफार्म हैं जैसे ULLU, ALTBALAJi, MX PLAYER, NETFLIX आदि। जिस पर आये दिन हम देखते हैं जिस्म प्रदर्शन और अश्लीलता को लेकिन क्या ऐसा किसी को लगता है कि यह एक मनोरंजनकारी न होकर किसी एक वर्ग के लिए कितना नरकीय होता जा रहा है। आये दिन कितनी लड़कियों को बलात्कार जैसी दरिंदगी का शिकार होना पड़ता है। आये दिन अश्लीलता भरे दृश्य दिखाकर पुरुष अथवा महिलाओं को सेक्स के प्रति उकसाया जा रहे जिसके चलते देश में गरीब घर की लड़की शिकार हो जाती है।

क्या पुरुषों और महिलाओं के जीवन में सेक्स ही सब कुछ है?

सवाल जाएज़ है। क्या हम उस दौर में जी रहे हैं जब महिलाओं को भोगविलास या मनोरंजनकारी वस्तु के रूप में इस्तेमाल किया जाता है? क्या इस शोषण को रोका जा सकता है? क्या आधुनिकता के नाम पर हम उत्तेजना अथवा अश्लीलता परोस रहे हैं?

दिल्ली, बैंगलोर, मुंबई के लोगों का कहना है कि पुरुषों को अपनी सोच बदलनी चाहिए लेकिन अगर यही बात उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान, हरियाणा आदि शहरों में देखी जाए तो शायद जवाब नकारात्मक मिले। पुरुष प्रधान मानसिकता इसी सोच से शुरू होती है कि “महिला विरोधी अभ्यास” या “महिला विरोधी मोर्चा”। विकसित शहरों की आधुनिकता ने पिछड़े शहरों की महिलाओं को खतरे में डाला है।

अब यह भी नहीं कहा जा सकता के शहरों की महिलाओं को यह सब बंद करना चाहिए। नहीं बिलकुल नहीं, मैं तो महिला स्वतंत्रता के पक्ष में हूं लेकिन शायद हमें एक लिमिट सेट करने की ज़रूरत है कि हम किस तरह के कार्यक्रम परोस रहे हैं। किस  तरह का कंटेंट जनता के बीच दे रहे हैं।

कलाकारों को कम करनी होगी अश्लीलता और बंद करना होगा फूहड़पन?

मुंबई या दिल्ली में बैठे कलाकरों को यह बात सुनिश्चित करनी होगी कि जो भी वह बना रहे हैं वह सारी जनता को ध्यान में रखते हुए बनाएं। उनका कार्यक्रम सिर्फ मुंबई या दिल्ली की महिलायें नहीं बल्कि पांच लाख से ज़्यादा गांव में देखी जानी है। गांव में शिक्षा की कमी है। लडकियां अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के लिए लड़ रही हैं। बदलाव की हवा में सांस लेने में न जाने कितने परिवारों की बेटियों का अंत दरिंदगी से किया जा रहा है।

महिला सशक्तिकरण के लिए पहले महिला की भागीदारी को दिखाना, महिलाओं की शिक्षा, महिलाओं की काबिलियत, रूढ़िवादी मानसिकता, दहेज, महिला हिंसा, वैश्यविकरण की ओर धकेला जाना आदि मुद्दों पर ज़्यादा ज़ोर देना चाहिए। बजाय सेक्स के।

कदम हम सबको मिलकर उठाना पड़ेगा, क्योंकि बढ़ती अश्लीलता गरीब परिवार की लड़कियों की जान ले रही है। गांव में बैठा कोई अनपढ़ व्यक्ति जब किसी दृश्य को देखता है तो उसको यह सेक्स क्रिया मनोरंजक लगती है। उस दृश्य में फिल्मायी गयी आवाज़ अजीब तरह का नशा उत्पन्न करती जिसका इस्तेमाल वह अपनी हवस मिटाने में करता है और गैंग बनाकर कर देता है बलात्कार और गुनाह छुपाने के लिए करता है दरिंदगी।

न्यायप्रक्रिया की हालत आप सब देख ही रहे हैं जो बिलकुल भ्रष्ट हो चुका है। जब पढ़े-लिखे लोगों को न्याय नहीं मिलता तो एक गरीब लड़की को कैसे न्याय मिलेगा। लड़की पहले ही वहां मात खा जाती है जब वह पुलिस को रिपोर्ट दर्ज करने जाती है। वहां उसका उतना ही शोषण होता है जितना बलात्कारियों ने किया होता है। जबकि पुलिस, कोर्ट द्वारा संरक्षण से अमीर लोग सिस्टम को खरीद लेते हैं और हाथ आती है सिर्फ लाचारी, मक्कारी और इन्साफ का नंगा नाच।

आये दिन नेता, मंत्री, विधायकों, ढोंगी बाबा, मौलवी आदि के सामने समाज की गायब हुई न जाने कितनी लडकियां परोसी जाती हैं। हम सिर्फ खबरें पढ़कर छोड़ देते हैं और समाज इसी सोच में मौन हो जाता है कि मुझ अकेले से क्या होगा और यहीं से शुरू होती है बलात्कारियों की पैदाइश। सामजिक संरक्षण महिलाओं की जिस्म की भक्षक बन जाती है।

इस लिए शायद हमको अपनी कुछ वक्त के लिए लिमिट सेट करनी होगी। जिसमें फिल्मों को महिला शिक्षा, महिला हिंसा अथवा महिला विरोधी मानसिकता को तोड़ कर कैसे किया जाए वह काम करना ज़रूरी है। सेक्स सम्बन्धी चीज़ों से ज़्यादा अहम यह है कि सामाजिक भेदभाव, आर्थिक परिस्थितयां, गरीब की लड़ाई को ज़्यादा से ज़्या दिखया जाए जिसमें गांव को विकसित करने की बात ज़्यादा हो। जब तक हम पिछड़े राज्यों और गांव का विकास नहीं करेंगे तब तक हम ऐसे लाखों दरिंदगी के मंज़र देखेंगे जिसकी कल्पना इस लेख में बयान नहीं कर सकते।


नोट: यह मेरे अपने विचार हैं, किसी को आहत करना या दुःख पहुंचाना मेरा लक्ष्य नहीं है।

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