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कविता: हसरतों को छुपाकर अखबार बेचता हूं

अंधेरे में बैठा मैं उजियार देखता हूं,

गरीब हूं साहब मैं अखबार फेंकता हूं।

 

मेरी जेब में खनकते सिक्के नहीं,

वरना ये खिलौने तो मैं हज़ार देखता हूं।

 

अम्मा की नम आंखें देखी हैं,

तभी तो मैं दूर से बाज़ार देखता हूं।

 

भोर होते ही चल देता हूं,

घर चलाना हो तो कहां इतवार देखता हूं।

 

कभी-कभी रो देता हूं खुलके

जब ऊंचे-ऊंचे घरों की दीवार देखता हूं।

 

अंधेरे में बैठा मैं उजियार देखता हूं,

गरीब हूं साहब मैं अखबार फेंकता हूं।

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