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लॉकडाउन में घर से दूर मुझे एक नया परिवार मिला

balkrishna during lockdown

balkrishna during lockdown

कोरोना संकट ने वाकई में हमारी ज़िन्दगी को बदल दिया है। हमें बहुत कुछ सिखाया है, हमें अपनी प्राथमिकताओं को बदलने पर मज़बूर किया है। हमें सोचने का समय दिया है। खुद के अंदर झांकने का एक मौका दिया है।

हमारी गलतियों का हमें अहसास कराया है। दुनिया को देखने का हमारा नज़रिया भी बदल गया है और सबसे अहम बात यह है कि इसने हमें इंसानियत का वो पाठ पढ़ाया है जिसे शायद हम भूल गए थे।

कोरोना संकट ने समझाया मज़दूरों का दर्द

हमने कोरोना संकट की वजह से हुए लॉकडाउन में मज़दूरों का पलायन देखा, जिसमें मज़दूर शहरों से निकलकर पैदल एक राज्य से दूसरे राज्य में अपने घर जा रहे थे। जिन शहरों को इन मज़दूरों ने बड़ा किया, उन शहरों ने इन्हें कभी अपना समझा ही नहीं, ना ही वहां की सरकारों ने ही इन्हें कभी अपनाया।

इनका ना कोई घर था और ना ही सरकार और शहर की नज़रों में कोई वजूद था। इस लॉकडाउन में मज़दूरों की बहुत सारी बेहद दुखद और इंसानियत को शर्मसार करने वाली तस्वीरें हमने देखीं, जिसे हमें कभी भी भूलना नहीं चाहिए। ये तस्वीरें साबित करती हैं कि हमारा देश सबके लिए एक जैसा नहीं है, ये तस्वीरें साबित करती हैं कि हमारी और सरकार की संवेदना मर चुकी है।

हमारी इंसानियत बस एक दिखावा बन चुकी है, हमारा विकास लाचार और हताश हो चुका है। अगर हमें भविष्य को सही करना है तो इन तस्वीरों को भूलना नहीं चाहिए, आगे ऐसा ना हो इसके लिए हमें प्रयास करने चाहिए। सरकार को इन मज़दूरों के बारे में भी गंभीरता से सोचना चाहिए।

घर वापस लौटते प्रवासी मज़दूर

मैंने कुछ दिनों पहले ही मज़दूरों पर ही “मज़दूर हूं मैं, आज मज़बूर हूं मैं” यह कविता लिखी। यह कविता लिखते समय जब मैं खुद को उन मज़दूरों की परिस्थिति में ढाल पा रहा था, तब मुझे उन मज़दूरों के दुख और दर्द का अहसास हो रहा था। यह कविता लिखते समय मैं यह सोच रहा था कि हमें आज़ादी मिले 70 साल हो गए फिर भी आज ऐसे हालात क्यों हैं?

हमें आज़ादी दिलाने वाले हमारे नेताओं ने क्या इसी भारत का सपना देखा था? क्या यह देश सिर्फ संविधान में सभी के लिए एक जैसा है? हमारे देश और उसके संसाधनों पर सबका अधिकार एक जैसा क्यों नहीं है? क्या हमारी न्याय व्यवस्था सबको एक जैसा न्याय दिलाने में सक्षम नहीं है? क्या हमारा देश इंसान को इंसान का हक दिलाने के काबिल नहीं है? एक बेहतर देश बनाने के लिए बेहद ज़रूरी है कि इन सभी सवालों के जवाब मिलें।

लोगो की इंसानियत भी आई है सामने

इसी लॉकडाउन में सुकून देने वाली तस्वीरें भी सामने आईं जिसमें लोग दूसरों की जो भी हो सकती है वो मदद कर रहे हैं। दूसरों के दर्द को समझने की कोशिश कर रहे हैं। ये तस्वीरें देखकर ऐसा लगता है कि कोरोना संकट ने हमारे अंदर की इंसानियत को जगाया है और ये पाठ पढ़ाया है कि एक-दूसरे की मदद करना, दूसरों का दुःख और दर्द समझना यही इंसानियत है। यही हमारा कर्तव्य है और एक इंसान होने के नाते यह हमारी ज़िम्मेदारी भी है।

कोरोना संकट में आने वाले दिनों में हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है। आने वाला समय और भी मुश्किल साबित होने वाला है और इसलिए भी हमें एकजुट होने की ज़रूरत है। आने वाले समय में हमें संयम और धैर्य बनाए रखने की ज़रूरत है। एक-दूसरे को समझने की ज़रूरत है।

लॉकडाउन में मदद करती हुई महिलाएं

पर्यावरण की स्थिति भी हो रही है ठीक

अब बात करते हैं पर्यावरण की, जिसमें लॉकडाउन की वजह से सुधार देखने को मिला है। प्रदूषण कम हो चुका है, नदियों का पानी साफ दिखने लगा है। हम अगर हमारी ज़रूरतों को नियंत्रण में रखते हैं और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए विकास करते हैं, तो पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचेगी जिसका फायदा पंक्षियों और वन्य प्राणियों के साथ-साथ हम सभी को मिल सकता है।

लॉकडाउन में घर से दूर मुझे एक नया परिवार मिला

मैं मेरे स्टार्टअप प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूं, इसलिए मैं मेरे घर से दूर औरंगाबाद में रहता हूं। इस लॉकडाउन में भी मैं घर नहीं जा पाया। मैं यहां अकेला रहता हूं और खाना बनाना मुझे नहीं आता है। जब 22 मार्च को जनता कर्फ्यू था तब भी मैं यहीं पर था और दो दिनों तक मैंने स्नैक्स और जूस से अपना पेट भरा था।

बालकृष्ण पाटिल

रेस्टोरेंट्स और टिफिन सर्विसेज बंद हो चुकी थीं। मैं यह सोचने लगा था कि लॉकडाउन हो जाता है तो मैं खाने का इंतज़ाम कैसे करूंगा और 24 मार्च को प्रधानमंत्री ने पूरे देश में 25 मार्च से लॉकडाउन लागू करने की घोषणा कर दी।

जैसे ही प्रधानमंत्री का सम्बोधन खत्म हुआ तभी मुझे मेरे घर और ऑफिस ओनर शुभा और रुपेश देवड़ा जी का कॉल आया और उन्होंने मुझे कहा कि इस पूरे लॉकडाउन में हम आपको खाने का टिफिन भेजेंगे। इस कॉल की वजह से मेरी परेशानियां खत्म हो चुकी थीं। लॉकडाउन शुरू होने से लेकर आज तक तकरीबन 75 दिनों तक मुझे वे रोज़ खाना दे रहे हैं।

इन्होंने मुझे यह अहसास भी नहीं होने दिया कि मैं घर से दूर हूं। मुझे लगता है कि इस देवड़ा फैमिली की वजह से कोरोना संकट में मैं घर से दूर रहकर भी सुरक्षित हूं। इस देवड़ा फैमिली ने मुझे घर से दूर घर जैसा माहौल दिया है। इसलिए आज इनका ज़िक्र यहां करना बेहद ज़रूरी है।

रुपेश देवड़ा जिन्होंने मुझे 75 दिन रोज़ टिफ़िन लाकर दिया

कोरोना संकट में मुझे स्वरूपरानी देवड़ा फॅमिली ने यह पाठ पढ़ाया कि नाते अपनाने से होते हैं, एक-दूसरे को समझने से होते हैं, मित्रता निभाने से होती है। कोरोना संकट की वजह से यह फैमिली मेरे ज़िन्दगी की किताब का एक अहम हिस्सा बन चुकी है जिसे मैं सारी ज़िंदगीभर भूल नहीं सकता हूं।

इस लॉकडाउन की वजह से हमें ज़िन्दगी को समझने का मौका मिला, ज़िन्दगी के अलग-अलग पहलूओं को देखने का मौका मिला। हमें हमारे कर्त्तव्य और ज़िम्मेदारियों का एहसास भी हुआ। इस लॉकडाउन ने नाते निभाना, दूसरों की परवाह करना और पर्यावरण के बारे में सोचना सिखाया है। अब सवाल यह हैं कि हम इससे कितना सीखते हैं?

अगर आज हम इस कोरोना संकट से सबक लेते हैं और इस आपदा से सीखते हैं तो आने वाले समय में एक बेहतर देश और समाज बना सकते हैं।

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