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क्या पीरियड्स पर बात करना पुरुषों की भी ज़िम्मेदारी नहीं होनी चाहिए?

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पीरियड्स का दर्द से परेशान महिला की प्रतीकात्मक तस्वीर

पीरियड्स यानि माहवारी, मासिक धर्म, या फिर इसे हम मेन्सट्रूयल साइकिल भी कहते है। यह हर लड़की और औरत के जीवन में होने वाली एक सामान्य और प्राकृतिक प्रक्रिया है।

यह एक ऐसा विषय है, जिसको लेकर हम आज भी संकुचित मानसिकता के साथ जी रहे हैं, खास करके उन क्षेत्रों में जहां शिक्षा का अभाव है, वहां उन लोगों के बीच इस पर बात करना और भी कठिन है।

पीरियड्स गंदगी नहीं, स्वास्थ्य की निशानी है

महिलाओं के शरीर में एक प्रकार का हार्मोन, जिसको हम एस्ट्रोजन हार्मोन कहते हैं। यह हार्मोन शरीर के कई चीजों के बदलाव में अहम भूमिका निभाता है।

जैसे- गुप्तांग के आस पास बालों का बढ़ना, आवाज़ में बदलाव, स्तन के आकार में बदलाव, शरीर के आकार में बदलाव, सेक्स करने की चाहत, चेहरे पर मुहांसे का होना एवं मूड का बदलना ये सारे ही एस्ट्रोजन हार्मोन की वजह से ही होते हैं और खून का रिसाव भी इसी हार्मोन की वजह से होता है।

पीरियड्स के दौरान होने वाला खून का रिसाव शर्मिंदगी की बात नहीं है बल्कि अगर समय पर ये प्रक्रिया न हो तब  महिलाओं एवं लड़कियों को स्वास्थ्य संबंधी  परेशानियों से गुज़रना पड़ सकता है इसीलिए समय पर प्राकृतिक रूप से पीरियड्स होना अच्छी बात है। शरीर में होने वाले बहुत सारे बदलाव उसी पर निर्भर करते हैं, जो की स्वास्थ्य  के लिहाज़ से बहुत ज़रूरी हैं।

पीरियड्स के अपराध में जब की गई आत्महत्या

पीरियड्स एक ऐसा शब्द है  जिसपर हम बात करने से ही नहीं बोलने से भी बचते हैं, इस समय में लड़कियों और औरतों को अछूत (नापाक) माना जाता है लेकिन इन सब भ्रांतियों  को दूर करने की समाज को जागरूक करने की ज़रूरत है।

बहरहाल, घटना साल 2017 की है। तमिलनाडू के एक स्कूल में एक छात्रा को पीरियड्स की वजह से उसके टीचर ने बहुत फटकार लगाई, जिससे लड़की ने परेशान होकर आत्महत्या कर ली। ये हालात हमारे स्कूल में पढ़ाने वाले उन शिक्षकों के हैं, जिनकी इन सब विषयों पर अपनी ज़िम्मेदारी हम सभी से कहीं ज़्यादा है।

क्या ऐसी घटनाएं मान्य हो सकती हैं? नहीं! नहीं हो सकतीं मगर ऐसी घटनाएं आए दिन हमारे देश में होती रहती हैं, जहां किसी लड़की या किसी महिला को पीरियडस की वजह से अपमानित होना पड़ा हो।

एक परिवार के तौर पर पीरियड्स पर बात करना पुरुषों की भी ज़िम्मेदारी है

परिवार! परिवार का हर सदस्य एक-दूसरे के सुख-दुःख में साथ रहता है और उसे ही हम एक स्वस्थ्य एवं खुशहाल परिवार कह सकते हैं। लेकिन हमारे समाज में पीरियड्स एक ऐसा विषय है, जिस पर एक परिवार के तौर पर भी, हम सभी बात करने से बचते हैं। ऐसे में एक महिला का दुख-सुख सिर्फ उसका रह जाता है।

ये प्रथा या कहें कुप्रथा को जिसे हमारे पूर्वजों ने शुरू किया था, आज ज़रूरत है, इसे ख़त्म करने की। हमारा समाज पितृसत्तात्मक सोच में जकड़ा हुआ है। महिलाओं से सिर्फ यह उम्मीद की जाती है कि, वे घर में सिर्फ एक सेवक के रूप में रहें।

हमारे समाज में पीरियड्स के बारे में महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों को भी जागरूक करने की ज़रूरत है। पीरियड्स के दौरान महिलाओं को खास आराम की ज़रूरत होती है, जिसका ख्याल पुरुषों को भी रखना चाहिए।

पीरियड्स एंड ऑफ सेंटेंस’ पर क्या कहतीं हैं प्रोड्यूसर गुणीत मोंगा?

साल 2018 में पीरियड्स पर बनी एक शॉर्ट  फिल्म ‘पीरियड्स एंड ऑफ सेंटेंस’ जिसको रायका जेहताब्ची ने बनाया है, जिसे सर्वश्रेष्ठ शॉर्ट मूवी के लिए ऑस्कर भी दिया गया। यह फिल्म उत्तर प्रदेश के हापुर जिले के गाँव में रहने वाली लड़कियों और महिलाओं पर फिल्माई गई  है। इसकी प्रोड्यूसर गुनीत मोंगा कहती हैं, “पीरियड्स पर बाद पुरुषों को भी करनी चाहिए।”

25 मिनट की इस फिल्म की शुरुआती हाईलाइट में गाँव की महिलाओं एवं स्कूल के छात्र-छात्राओं से यह जानने की कोशिश की गई कि पीरियड्स किसे कहते हैं? क्या आप लोग जानते हैं? सारे लोग इस सवाल को सुनते ही असहज़ महसूस करने लगे, जैसे जाने क्या ही पूछ लिया गया हो। यहां तक कि औरतें भी इस विषय पर बात करने में कतराती दिखीं।

जिन्होंने बात कि भी उन्हें इसके होने नहीं होने के फायदे नुकसान के बारे में कुछ नहीं पता था बस होता है इतना ही वे जानती थीं। मतलब साफ है, इससे होने वाली स्वास्थ्य सम्बंधित परेशानियों से बचने के लिए चिकित्सकीय उपाय के बारे में उन्हें, कोई जानकारी ही नहीं है और यही स्थिति लगभग सम्पूर्ण ग्रामीण भारत की  है। हमारे समाज का एक बड़ा तबका पहले से चली आ रही सामाजिक प्रथा और घरेलू उपाय पर ही निर्भर हैं।

फिल्मों के बीच जागरूकता के आंकड़े

नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 के आंकड़े के मुताबिक भारत में 336 मिलियन महिलाओं में से लगभग 121 मिलियन यानि लगभग 36 प्रतिशत महिलाएं ही सैनेटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं बाकी महिलाएं अभी भी कपड़े  या अन्य घरेलू  साधनों पर निर्भर  करती हैं, जिससे बीमारी होने का खतरा बना रहता है।

हाल के वर्षों में पीरियड्स और पैड जैसे ज़रूरी विषय पर फिल्म निर्माताओं ने कुछ फ़िल्में बनाई है जैसे – फुल्लू (2017), पैडमैन (2018) और पीरियड. एंड ऑफ सेंटेंस (2018) इत्यादि। यह फ़िल्में हमारे समाज को इस ज़रूरी विषय पर जागरूक और शिक्षित करने कि ओर एक कदम हैं  लेकिन इतना ही नाकाफ़ी नहीं है। फिर भी इस तरह की सामाजिक सरोकारों को ध्यान में रखते हुए फ़िल्में बनती रहनी चाहिए, बहुत हद तक इसका सकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ता है।

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