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“क्यों मुझे स्त्री सम्मान की बात धोखा लगती है”

मेरा सवाल आज उन सभी हिंदुस्तानियों से है जो आज अपने देश को देवियों और माताओं के सम्मान करने वाले बताते हैं लेकिन वास्तविकता इसके पूर्णतयः विपरीत है। मन्दिर हो भीड़ हो या फिर सुनसान सड़क हर जगह एक डर हर औरत को रहता है कि पता नहीं अभी क्या हो जाएगा।

यूं तो हम सभी कहते फिरते हैं कि हम सभी को एकता और सम्मान की भावना से देखते हैं लेकिन आज के युग में कथनी और करनी का फर्क बिल्कुल साफ दिखाई पड़ता है। आज बच्ची हो या बूढ़ी औरत किसी भी जगह सुरक्षित नहीं है, चाहे वो सड़क की भीड़ हो, मन्दिर की प्रार्थना, स्कूल की कक्षा, मज़ार का आंगन, घर के रिश्तेदार या फिर माँ की कोख हर जगह उन्हें सिर्फ नुकसान होने का ही डर होता है। कहीं यौन शोषण तो कहीं ज़िन्दगी ही खत्म कर दी जाती है।

कहने को तो हम सभी 21वीं सदी में रहते हैं और खुद को आज़ाद ख्याल कहते हैं लेकिन हम घर में अपनी ही बहनों के आज़ाद होने से डरते हैं उन्हें सिर्फ एक कोठरी में रखना चाहते हैं आखिर क्यों? इस सवाल का जवाब मैं पिछले 8 साल से ढूंढ रहा हूं।

हां लेकिन जवाब मिला तो अब मुझे भी वही डर सताने लगा क्योंकि आज के हिन्दुस्तान में इंसान की जगह भेड़ियों ने ले ली है। ये लोग वैसे तो औरतों के हक के लम्बे लम्बे भाषण देते हैं और अंधेरी रातों में उन्हीं के साथ अत्याचार का घिनौना खेल खेलते हैं। उन्हें शायद यह भी याद नहीं रहता कि उनको पैदा भी किसी औरत ने किया है, उन्हें राखी भी किसी औरत ने बांधी थी, उनकी सुबह शाम सेवा भी कोई औरत ही करती है।

इन्हें सिर्फ शोषण और जिस्म की भूख ने जानवर बना डाला है। आज तो मुझे भी शर्म आती है खुद के मर्द होने पर क्योंकि मैं भी उसी जात का हिस्सा हूं, जो किसी भी औरत को अपनी हवस का शिकार बना देती है।

मैं अपने मन की भावना को एक कविता के माध्यम से कहने की कोशिश करता हूं। अगर मेरे इस लेख से किसी को भी अपनी मर्यादा का बोध होता है तो मेरा लेख सफल हो गया वरन सब व्यर्थ है।

परिकल्पना करूं मैं कैसे किसी स्त्री के सम्मान की

अब युग में घटित होती घटनाएं हैं प्रतिदिन स्त्री के अपमान की

जो धरा सुशोभित थी कभी स्त्री के कर कमलों से

आज उसी धरा को तलाश है अपनी निज पहचान की।

 

अत्याचार यहां सर चढ़कर बोल रहा है

दुराचार अब अपनी बाहें खोल रहा है

स्त्री जो कल तक इस धरा में देवी मानी जाती थी

अब उसे भी चिंता है अपने सम्मान की।

 

पुत्र बना जिसने है भरण कल्याण किया

भातृ बना जिसने है निज सम्मान दिया

चारु बनकर जिसने परमेश्वर भांति मान दिया

उस स्त्री को नहीं है क्या चाह अपने आत्म सम्मान की।

 

त्याग और बलिदान की वो मूरत है

हर अत्याचार को सहती वो सहमी सी उसकी सूरत है

हर काम को करती वो अब साधारण सी औरत है

तो क्या नहीं है अधिकार उसको अपने उत्थान की।

 

परिकल्पना करूं मैं कैसे किसी स्त्री के सम्मान की

अब युग में घटित होती घटनाएं हैं प्रतिदिन स्त्री के अपमान की

जो धरा सुशोभित थी कभी स्त्री के कर कमलों से

आज उसी धरा को तलाश है अपनी निज पहचान की।

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