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“माँ की थपकियां और परियों की कहानी आज बरबस याद आ गई”

प्रतीकात्मक तस्वीर

प्रतीकात्मक तस्वीर

अपनी कोख में 9 महीने गढ़ना फिर असीम पीड़ा को सहकर दुनिया में लाना और देख कर मुस्कुराना, आंचल में छुपाकर अपने लहू को निचोड़ कर दूध पिलाना, लड़खड़ाते कदमों को अपनी उंगलियों के सहारे चलना सिखाना, माँ क्या कुछ नहीं करती अपने बच्चे के लिए।

बच्चे बड़े हो जाते हैं, व्यस्त हो जाते हैं, उनकी शादी हो जाती है फिर उनके बच्चे हो जाते हैं। नई ज़िंदगी और नए मकान में बच्चे अपना बचपन भूल जाते हैं। उन्हें याद रहता है तो बस बिज़नेस बढ़ाना, कामयाबी के बाद दोस्तों के साथ पार्टी करना और अपने परिवार के साथ सैर-सपाटा करना।

वे दोस्तों से गपशप में यह कहते हैं कि उनका मन होता है माँ से मिलने का लेकिन उनके पास वक्त नहीं होता है। दरअसल, यह बहाना है। उनके पास खाली वक्त तो है लेकिन वे सोचते हैं कि कौन माँ के साथ सर खपाए, कौन उनकी नसीहत सुन कर बोर हो।

ज़माना बदल गया है। ढोंग करते-करते एहसास मर चुके हैं। तभी तो बूढ़ी माँ का चिड़चिड़ापन चुभता है। उनकी दवाइयों का खर्च बोझ लगता है, टकटकी लगाए धुंधली आंखों से उनका देखना परेशान करता है कि कहीं वह कुछ फरमाइश ना कर दे।

दरअसल, ज़माना नहीं बदला है, बल्कि हम खुद बदल गए हैं। कामयाबी की उड़ान, अपनी ज़िंदगी जीने और ढकोसलों का दिखावा करने में हम पूरी तरह से बदल चुके हैं।

वह माँ की लोरी सुनाकर सुलाना, उनकी थपकियां, परियों की कहानी, रूठ जाने पर मनपसंद खाना बनाना और चोट लगने पर माँ का रोना, क्या यह सब हम भूल चुके हैं? आज तो मुझे यह सारी चीज़े बरहस याद गई। याद करिए कि आखिरी बार आप कब अपनी माँ के पास इत्मीनान से बैठे हैं और उनसे बेटा बनकर बात किया है।

फोटो साभार: pixabay

ज़िंदगी देने वाली माँ को हम कुछ भी देकर उनकी बराबरी नहीं कर पाएंगे। हमारे खज़ाने में झूठ है, फरेब है, गुस्सा है, अवसाद है, बनावटी चिड़चिड़ापन और दिखावे की परेशानी है। माँ को ढोंग नहीं आता, वह बूढ़ी हैं और तकलीफ में हैं लेकिन आप एक बार माँ के पास बेटा बनकर बैठिए तो सही, उनसे बात तो करिए, उन्हें भी मुस्कुराना आ जाएगा।

उनकी आंचल की छांव में आपकी सारी परेशानियां दूर हो जाएंगी। यह जो आप सोने से पहले नींद की गोली लेते हैं, माँ की गोद में सर रखकर देखिए। आपको दवा की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी।

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