मैंने जितने भी शिक्षाविद, वैज्ञानिक, समाज-सेवी और विभिन्न क्षेत्रों में मशहूर लोगों के बारे पढ़ा है या उनके सिद्धांतों को सुना है उन सबने एक बात बड़े सजग ढंग से कहने की कोशिश की है। वह बात कुछ इस तरह से है,
शिक्षा ही एक माध्यम है, जिससे संसाधनों के बंटवारे की दूरियों को कम करते हुए एक समरूप और सजग समाज की रूपरेखा देखी जा सकती है।
हर एक बच्चे को एक समान माध्यम से शिक्षा की सुविधा होनी चाहिए। इसके दो मुख्य कारण मुझे लगते हैं,
- किसी बच्चे की क्या गलती है कि उसके माता-पिता उन्हें मंहगी शिक्षा देने में सक्षम नहीं हैं,
- दूसरा एक बच्चा एक संसाधन के रूप में आगे चलकर उस देश या पूरे विश्व में अपनी भूमिका निभाता है। वह जब किसी क्षेत्र में सफल होता है, तो अपने साथ पूरे विश्व के लिए काफी नए अनुभव और संसाधन उपलब्ध करवाता है।
आज जब हम अपने देश के स्कूलों को करीब से देखते हैं, तो लगता है कि संसाधनों का अंतर और भी बढ़ता ही चला जाएगा। बात सरकारी स्कूलों की हो या गैर सरकारी स्कूलों की दोनों के ही हाल बुरे हैं। जिन गैर सरकारी स्कूलों की स्थिति ठीक भी है, वहां फीस का बोझ बहुत ज़्यादा होता है। हालांकि इन सबमें कुछ अपवाद स्कूल भी हैं मगर जैसा कि मैंने कहा कि अपवाद यानि उनकी संख्या बेहद कम है।
चलिए हम एक-एक करके अलग-अलग तरह के स्कूलों की स्थितियों पर बात करते हैं।
एक तरफ है सरकारी स्कूल, जिनकी हालत बदहाल है, इमारतों से लेकर शिक्षा व्यवस्था सबकी हालत जर-जर है। कुछ शिक्षकों को छोड़कर बाकी सभी सिर्फ अपनी नौकरी की पूरा कर रहे हैं, उनके अंदर बच्चों के भविष्य को लेकर कोई चिंता नहीं है। इसमें कई फैक्टर काम करते हैं, जैसे-
- शिक्षकों को सही समय पर सैलरी नहीं मिलने की वजह से पढ़ाने से उनका मन उठ जाना।
- ड्रॉप आउट की वजह से उनके मोटिवेशन में कमी।
- शिक्षकों की बहाली में धांधली और सही उम्मीदवार का चुनाव ना होना।
इन बच्चों में कई बच्चों को अपनी घर की कमज़ोर आर्थिक स्थिति की वजह से पढ़ाई के साथ-साथ रोज़ी-रोटी के लिए काम भी करने होते हैं।
गैर सरकारी स्कूल (प्राइवेट स्कूल)-
जब हम गैर सरकारी स्कूलों को देखते हैं तो वहां के हालात भी कुछ खास सही नहीं हैं। जिनकी स्थिति बेहतर है उन विद्यालयों की मासिक फीस इतनी ज़्यादा होती है कि सभी माता-पिता के लिए उसका खर्चा उठाना संभव नहीं होता है।
कई प्राइवेट स्कूल सिर्फ नाम के प्राइवेट स्कूल होते हैं, जहां का क्लासरूम काफी छोटा होता है, शिक्षक की योग्यता तथा उनके वेतन दोनों ही बहुत कम होते हैं, जिनमें बच्चों के परिवार वालों ने सिर्फ इसलिए दाखिला करा रखा है, क्योंकि वे अपने बच्चों के बारे में बोल सकें कि उनके बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं, दूसरा उन्हें सबसे अव्वल नंबर और अपने बच्चे के बड़े होने पर नौकरी चाहिए।
इन स्कूलों में बच्चे एक बंद वातावरण में रहते हुए एक मशीन की भांति होते जा रहे हैं, जहां उन्हें सिर्फ विषयों को रटना और एग्ज़ाम पास करना होता है।
बच्चों के मानसिक विकास पर कोई बात नहीं
जब तक हम शिक्षा को सिर्फ डिग्री और रिज़ल्ट से देखेंगे तब तक स्थिति में सुधार नहीं हो पाएगा। हम इसी कैल्कुलेशन में रह जाएंगे कि कितने बच्चे हर साल 10वीं और 12वीं की परिक्षा में पास हो रहे हैं। इन सबसे अलग जब आप बच्चों के मानसिक विकास या उनकी नेतृत्व क्षमता पर बात करेंगे तो इस दिशा में स्थिति बुरी ही नज़र आएगी।
सरकारी स्कूल हो या मोटे पैसे लेकर शिक्षा देने वाले प्राइवेट स्कूल, दोनों ही जगहों पर सिर्फ नंबर्स का खेल खेला जा रहा है, बच्चों के मानसिक विकास पर कहीं भी बात नहीं हो रही है, जो एक गंभीर समस्या है।