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आदिवासी सेनानियों की वीर गाथा जो कभी मुख्यधारा में ना आ सकी

जब हम आज़ादी की बात करते हैं तो किसके चेहरे हमारे सामने आते हैं? गाँधी, नेहरू, भगत सिंह, सरदार पटेल, सरोजिनी नायडू, बोस; ये नाम हमारी याददाश्त में सबसे आगे हैं। स्कूल, कॉलेज, यहां तक की राष्ट्रपति भवन और संसद में भी इन्हीं लोगों की तस्वीरें लगाई गई हैं।

तो आईए याद करते हैं ऐसे वीर आदिवासी स्त्री और पुरूषों को, जिनकी आज़ादी की जंग और बलिदान अपने आप में  एक मिसाल हैं। जिस इतिहास को लोग भूल रहे हैं, उसे उजागर करते हैं।

आदिवासी वीरों का जब नाम लिया जाता है तो भगवान बिरसा मुंडा का नाम सबसे ऊंचा है। 19वीं सदी में, 24 वर्ष की आयु में ही ब्रिटिशों के खिलाफ किया गया उनका उलगुलान उन्हें एक अलग पायदान पर खड़ा करता है। साथ-साथ 1784 में ब्रिटिशों और ज़मींदारों के खिलाफ तिलका मांझी के विरोध और बलिदान को कौन भूल सकता है?

तो चलिए कुछ ऐसे ही वीरों की बात करते हैं, जिनके बारे में कम ही लोग जानते हैं।

आदिवासी लाइव्ज़ मैटर्स द्वारा इस विषय पर बनाए हुए विडियो को यहां देखें-

संथाल विद्रोह

शुरुआत करते हैं  संथाल विद्रोह से। इस विद्रोह की अगुवाई सिदो, कान्हू, चांद, भैरव, उनकी बहन फूलो और झानो मुर्मू ने 1855 में की। यह विद्रोह आज के झारखंड और बंगाल राज्य के पुरुलिया और बांकुरा में हुआ था।

अंग्रेज़ों और ज़मींदारों के ख़िलाफ़ यह विद्रोह हुआ था। जब आदिवासी खेती करते, तो जमींदार उन्हें इतने ऊंचे स्तर पर ब्याज़  देते कि वे उसे कभी चुका नहीं पाते।

इसके बाद उन्हें बंधुवा श्रम (बोंडेड लेबर) की तरह रखते। इसी के खिलाफ यह विद्रोह किया गया था। जब 1855 में विद्रोह की चिंगारी भड़की, तब 20,000 आदिवासियों ने आज़ादी के लिए संघर्ष किया।

रानी  गाइदिन्ल्यू

अब जानते हैं नागालैंड की महानायिका  रानी गाइदिन्ल्यू के बारे में । 1932 में अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन में नागालैंड की रानी गाइदिन्ल्यू ने मात्र 13 साल की आयु में संघर्ष शुरू किया था।

महिला सेनानियों में उन्होंने सबसे लंबी जेल सज़ा भुगती। नेहरू ने उनके बारे में लिखा था,

उस बहादुर लड़की ने अपने देश भक्ति के जोश में एक विशाल साम्राज्य को चुनौती दी है, मगर उसे कितनी यातना और कितनी पीड़ा सहनी पड़ रही है। अफ़सोस यह है कि भारत आज अपने इस बहादुर बिटिया के बारे में कम ही जनता है।

1931 में जब उनके छोटे भाई को अंग्रेज़ों ने फांसी दी, तब रानी कबीले की मुखिया बनी। अंग्रेज़ों की फौज़ और असम राइफल से उनकी और उनके लोगों की कई मुठभेड़ हुई। जिसके बाद रानी गाइदिनल्यू को गिरफ्तार कर लिया गया।

1946 में जब अंतरिम सरकार का गठन हुआ, तब प्रधानमंत्री नेहरु के निर्देश पर रानी गाइदिनल्यू को जेल से रिहा कर दिया गया। तब तक यह दिलेर लड़की 14 साल जेल में काट चुकी थी।

ताना भगत आंदोलन

अब जानते हैं ताना भगत आंदोलन के बारे में। इसका नेतृत्व 24 साल के युवा जतरा ओराओं ने  गुमला ज़िले के चिंगरी नवटोली गांव से किया था। यह फिर पूरे छोटा नागपुर क्षेत्र में फैल गया।

वे अंग्रेज़ों द्वारा लगाए कर (टैक्स ) का विद्रोह कर रहे थे। साथ ही वे ज़मींदारों और बनियों के खिलाफ भी थे, जिन्होंने उनकी भूमि पर अवैध कब्ज़ा कर उनसे पैसा वसूल रहे थे।

आंदोलनकारियों का मूल मंत्र था,

सरकार की  खिंचाई करो  

खिंचाई को स्थानीय भाषा में ताना कहते हैं और इस प्रकार आंदोलन को इसका नाम मिला। यह आंदोलन भूत-प्रेत, जादू-टोना, बलि प्रथा और अन्धविश्वास को ख़त्म करने की मुहिम भी थी ।

रम्पा आंदोलन

अब जानते हैं रम्पा आंदोलन के बारे में। अल्लुरी सीतारमण राजू ने रम्पा आंदोलन की  शुरुआत की। 1882 में अंग्रेज़ सरकार द्वारा जो मद्रास फॉरेस्ट एक्ट लागू किया गया था, उसी के खिलाफ यह आंदोलन था।

इस एक्ट के अनुसार आदिवासियों का जंगल में प्रवेश और जंगल की चीज़ों का इस्तेमाल वर्जित था। यह आंदोलन पूर्वी गोदावरी, विशाखापत्तनम और मद्रास के इलाकों में फैला था। स्थानीय लोग राजू को “मन्यम वीरूडू” कहते थे जिसका मतलब है, “जंगल का नायक”

इस विद्रोह का प्रमुख कारण मनसबदारों की मनमानी, उनका भ्रष्टाचार और समाज में जंगल कानून का व्याप्त होना था।

सुरेन्द्र साए

ऐसे ही एक और महानायक रहे हैं सुरेन्द्र साए23 जनवरी, 1809 को जन्में सुरेन्द्र साए भारत के पहले स्वतंत्रता सेनानी और आदिवासी अगुवाओं में गिने जाते हैं।

ओडिशा के सम्भलपुर से 21 किलोमीटर दूर उनका गांव था। राजा मधुकर साए के देहांत के बाद, सुरेन्द्र साए सही वंशज थे लेकिन अंग्रेज़ों ने यह पद चौहान वंश के नारायण सिंह को दिया।

सुरेन्द्र साए ने इसका विद्रोह किया जिसमें गाँव और राज्य के लोगों ने समर्थन दिया। 1837 में सुरेन्द्र साय, उदन्त साय, बलराम सिंह तथा लखनपुर के जमींदार बलभद्र देव मिलकर कुछ विचार-विमर्श कर रहे थे कि अंग्रेज़ों ने वहां अचानक धावा बोल दिया। उन्होंने बलभद्र देव की वहीं निर्ममता से हत्या कर दी; पर बाकी तीनों लोग बचने में सफल हो गए।

इसके बाद लगातार साए को पकड़ने की कोशिशें चलती रहीं। 1840 में साए अंग्रेज़ों के गिरफ्त में आ भी गए लेकिन इनके समर्थक शान्त नहीं बैठे।

1857 को हज़ारों क्रान्तिवीरों ने हज़ारीबाग जेल पर धावा बोला और सुरेन्द्र साए सहित 32 साथियों को छुड़ा कर ले गए। इसके बाद सुरेन्द्र साए वापस सम्भलपुर पहुंचे और अपने राज्य को अंग्रेज़ों से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र संग्राम शुरू कर दिया।

23 जनवरी, 1864 को जब सुरेन्द्र साए अपने परिवार के साथ सो रहे थे, तब अंग्रेज़ों ने छापा मारकर उन्हें पकड़ लिया और नागपुर के असीरगढ़ जेल में बन्द कर दिया। जेल में भरपूर शारीरिक और मानसिक उत्पीड़न के बाद भी सुरेन्द्र ने विदेशी शासन के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया।

अपने जीवन के 37 साल जेल में बिताने वाले उस वीर ने 28 फरवरी, 1884 को असीरगढ़ किले की जेल में ही अन्तिम सांस ली। आज भी उनकी बहादुरी उन्हें लोगों के दिल में ज़िंदा रखती है।

फोटो क्रेडिट – getty images

यह एक छोटी सी मुहिम है ऐसे नायक और नायिकाओं के बारे जानने की, जिन्हें इतिहास के पन्ने भुला चुके हैं। यह सूची संपूर्ण नहीं है। आने वाले समय में हम और भी कई आदिवासी नायक और नायिकाओं के बारे में बात करेंगें।

अगर आपको भी ऐसे नायक नायिकाओं के बारे में जानकारी है, तो हमें संपर्क करें और हम कोशिश करेंगे कि यह जानकारी हम और लोगों के साथ शेयर करें।

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About the author: Deepti Mary Minj is a graduate in Development and Labor Studies from JNU. She researches and works on the issues of Adivasis, women, development and state policies. When she is not working, she watches films like Apocalypto and Gods Must be Crazy, and is currently reading Jaipal Singh Munda.

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