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सिद्दीक़ कप्पन केस पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के मायने

बात तब की है जब हाथरस गैंगरेप मामला खबरों में था। न्यूज़ चैनलों पर बहसें हो रही थीं, जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे थे, राजनीतिक हलकों में गहमागहमी थी, निर्भया आंदोलन जैसा माहौल था। यह पहली बार हुआ था जब सीधे एवं खुले तौर पर पुलिस केस को कमज़ोर करने की आरोपी थी।

इन्हीं सब के बीच 5 अक्टूबर को केरल निवासी पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन और उनके दो सहयोगियों को (जो कि मामले की पड़ताल वगैरह करने हाथरस आ रहे थे) उत्तर प्रदेश पुलिस की स्पेशल टास्क फोर्स ने हाथरस पहुंचने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया।

7 अक्टूबर को उन पर देशद्रोह तथा UAPA जैसी धाराओं में मुकदमे कायम करके उन्हें जेल भेज दिया गया। उन पर उत्तर प्रदेश सरकार ने PFI (पीपुल्स फ्रंट ऑफ इंडिया) से जुड़े होने का आरोप लगाया था। PFI एक प्रतिबंधित संगठन नहीं है लेकिन अक्सर उसे प्रतिबंधित सिमी (SIMI) के साथ जोड़ा जाता है।

सिद्दीक़ को गिरफ्तार किए जाने के 43 दिन बाद ही उन्हें उनके वकील से बात करने का मौका मिल पाया। उस अवधि में सिद्दीक़ और उनके साथियों पर जिस स्तर का दमन हुआ और प्रताड़ना दी गई, उसके बारे में खास कुछ कहने की ज़रूरत नहीं है।

उच्चतम न्यायालय में केरल के पत्रकारों के संगठन KUWJ (केरल यूनियन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स) ने सिद्दीक़ की रिहाई के लिए याचिका दायर की। दायर की गई ‘Hebeas Corpus’ याचिका पर उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा कि सिद्दीक़ अपने अन्य साथियों के साथ हाथरस में जातिगत द्वेष फैलाने तथा कानून-व्यवस्था खराब करने के उद्देश्य से गए थे।

लेकिन सबसे अहम चीज़ जिस पर गौर किया जाना जरूरी है, वो यह है कि उच्चतम न्यायालय ने इस मामले पर क्या रवैया अख्तियार किया।

16 नवम्बर को इस याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी टिप्पणी दी, जिसके बाद वह विवादों में घिर गया एवं उसकी तीखी आलोचना भी हुई। मुख्य न्यायाधीश एस. ए. बोबडे ने कहा था, “हम अनुच्छेद-32 के अंतर्गत आने वाली याचिकाओं को हतोस्ताहित करने का प्रयास कर रहे हैं।”

गौरतलब है कि अनुच्छेद-32 किसी भी नागरिक द्वारा उसके मूल अधिकारों का हनन होने पर उसे न्यायालय में अपील करने का अधिकार देता है। हालांकि 20 नवम्बर को इसी याचिका पर सुनवाई करते हुए एवं अपने पुराने बयान से मुकरते हुए न्यायालय ने कहा कि हमारे बयान को मीडिया ने तोड़ मरोड़कर पेश किया था।

चूंकि अर्नब गोस्वामी ऐसे ही शख्स हैं, जिन्हें हाल ही में इसी अनुच्छेद के तहत ज़मानत दी गई है। इस पूरे घटनाक्रम को दोबारा दोहराने का मकसद यहं बेहद साफ है। बीती 2 दिसम्बर को उच्चतम न्यायालय ने सिद्दीक़ कप्पन की याचिका पर कुछ बेहद महत्वपूर्ण टिप्पड़ियां कीं। पूरे घटनाक्रम को समझे बिना उन टिप्पणियों के महत्व को समझ पाना सम्भव नहीं होता।

2 दिसम्बर को इसी याचिका पर हो रही सुनवाई में जब मुख्य न्यायाधीश ने इस केस को निचली अदालत यानि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में ले जाने को कहा। तो कप्पन के वकील कपिल सिब्बल ने यह सवाल उठाया कि जब अर्नब गोस्वामी (जिनकी ज़मानत निचली अदालत ने रोक दी थी) को इस अदालत से जमानत दी जा सकती है, तो कप्पन को क्यों नहीं?’ तब न्यायालय ने जो जवाब दिया वह बेहद हास्यास्पद और निराशाजनक है। न्यायालय ने कहा कि हर केस अलग होता है।

हमें यह याद होगा कि किस तरह अर्नब गोस्वामी की जमानत की मुनादी सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वंतत्रता की रक्षा के नाम पर करवाई थी। वही न्यायालय अब एक अन्य पत्रकार को ज़मानत देने में आनाकानी कर रहा है।

न्यायालयों का इस तरह से ‘अलग केस’ जैसे तमाम आवरणों में ढंक-छुपकर सत्ता द्वारा सत्ता-विरोधी नागरिकों को जेलों में भरने का मूक समर्थन एवं उन्हें उनके मूल अधिकारों से वंचित करना आखिर देश को किस ओर लेकर जाएगा?

आज जब देशभर के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमले बढ़ रहे हैं, कई बुद्धिजीवी-राजनीतिक कार्यकर्ता-पत्रकार लंबे समय से जेलों में बन्द हैं, ऐसे में सिद्दीक़ कप्पन की गिरफ्तारी बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। इस पर तुर्रा है न्यायालयों का इस तरह का रवैया।

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