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“जिस जाति से सवर्ण घृणा करते हैं, वही मरणोपरांत उनका क्रिया कर्म करती है”

अंतिम संस्कार

अंतिम संस्कार

अगड़े-पिछड़े की प्रासंगिकता अब तक समाज में मौजूद है और यह एक ऐसा कलंक है जिसके साथ हम अब तक जी रहे हैं। जब भी उपेक्षित जातियों के आरक्षण की बात उठती है तो हम सभी सवर्ण जातियां विरोध करते हैं।

हम में से कइयों के पास यह तर्क मौजूद होता है कि इस आधुनिक युग में अगड़े-पिछड़े की बातें बेबुनियादी हैं। संविधान में सभी को बराबरी का अधिकार प्राप्त है।

कुछ लोग अपनी जातियों की दमन के मिथ्या इतिहास के ज़ोर पर आरक्षण प्राप्त कर समाज में गैर बराबरी फैला रहे है। यह बात सच है कि लोकतंत्र में सबको वैचारिक स्तर पर समानता दी गई है, जिसकी ठेस अभिजात वर्ग को संविधान लागू होने के पश्चात महसूस हो रही है।

ज़मीनी स्तर पर वर्ण व्यवस्था कायम

यह मेरा निजी अनुभव है। मेरे गाँव के बड़े बुजु़र्ग कहते थे कि चुनाव करवाने में जो राष्ट्रकोष से धन खर्च किया जाता है, उससे अच्छा राजतंत्र था। जिसमें इतनी धन राशि व्यर्थ नहीं होती थी लेकिन बातें इतनी सहज नहीं है क्योंकि इसकी तरफदारी एक खास तबका ही करता है,

जो इस युग में भी प्रगतिशील ना बनकर रूढ़िवादी बेड़ियों में कैद है। यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि राजतंत्र में वर्ण व्यवस्था के आधार पर केवल अभिजात वर्ग को ही सभी पुण्य कार्य, शीर्ष स्तर की नौकरियां और सत्ता की बागडोर मिली थी जो एक अभिजात्य आरक्षण प्रणाली थी।

लोकतंत्र ने भले वैचारिक स्तर पर समानता पैदा की है, जिसके आधार पर पिछड़ी जातियां अपने हक की आवाज़ उठा सकती हैं परन्तु ज़मीनी स्तर पर आज भी वर्ण व्यवस्था ही समाज में अप्रत्यक्ष रूप से कायम है।

प्रतिभा कुछ जातियों तक ही सीमित?

हम आज भी यह देखते हैं कि मरणोपरांत हमें मुक्ति तब तक नहीं मिलती जब तक एक विशेष जाति हमें नहीं छूता और विडंबना यह है कि हम जीवनभर उस जाति के छूने से बचते हैं। गंदी नालियों, गट्टरों और सीवरों में सफाई करने वाले भी सब प्रायः पिछड़ी जातियां ही उतरती हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: pixabay

यह तर्क भी गढ़े जाते हैं कि जाति व्यवस्था के कारण प्रतिभा के आगे अयोग्यता को तरजीह दी जाती है। यानि हमने यह धारणा बना रखा है कि प्रतिभा का दायरा कुछ जातियों तक ही सीमित है।

उस दायरे के पार अनादिकाल से प्रतिभा का किरण पहुंचने में असमर्थ रहा है लेकिन हमने कभी साधनों की ओर ध्यान नहीं दिया। जो व्यक्ति गंदी नालियों में उतरकर, सामाजिक बहिष्कार और अपमान का विष पीता हुआ साधनहीनता के बावजूद अपने संघर्षों के दम पर किसी प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण होता है।

तुलना करना अन्याय

अपनी परिस्थितियों से उनकी तुलना करना अन्याय है क्योंकि हम सारे साधनों से लैस हो कर अगर किसी परीक्षा में उत्तीर्ण होते हैं तो इसे हमारी साधनों की जीत कहना गलत नहीं होगा। प्रतिद्वंद्विता बराबर की परिस्थितियों में उचित लगती है।

इस बात पर सार्थक बहस हो सकती है कि क्या आरक्षण ही सबसे उपयुक्त व्यवस्था है? समाज में जमी खाई को मिटाने के लिए अगर आरक्षण ही सबसे उपयुक्त ज़रिया है तो समाज में सात दशक के बाद भी बराबरी क्यों नहीं आई?

सामाजिक भेदभाव और पक्षपात का सामना

अब हम पिछड़ी जातियों में भी दो वर्ग देख सकते हैं। एक जो सात दशक पहले अपने संघर्षों के बल पर सामाजिक रसातल से बाहर निकल आर्थिक रूप से सक्षम होने में समर्थ रहे परंतु उनकी आगे की पीढ़ियां उस शोषण की भागी नहीं थी। आर्थिक तैर पर भी सशक्त थी परन्तु सामाजिक भेदभाव और पक्षपात का सामना उन्हें भी करना पड़ा।

चुनौतियां उनके पहले की पीढ़ियों से कम थी। साधनों की मौजूदगी और आरक्षण से वह भी अपने लिए बेहतर भविष्य का निर्माण पीढ़ी दर पीढ़ी करती गई। जिसके कारण पिछड़ी जातियों में भी दो वर्गों का स्पष्ट निर्माण हो गया।

एक जिसकी सामाजिक दशा खराब होने के बावजूद आर्थिक रूप से उसकी आगामी पीढ़ियाँ मज़बूत हो गई। दूसरा जिसकी आर्थिक और सामाजिक दशा सदियों से पिछड़ापन महसूस कर रही है इसलिए आरक्षण के साथ क्रीमी लेयर का प्रावधान होना चाहिए था।

आर्थिक रूप से सक्षम वर्ग को आरक्षण ज़रूरी नहीं

अति पिछड़ी जाति और जनजातियों के लिए जिससे उस आर्थिक रूप से पिछड़े तबके को भी समान अवसर प्राप्त हो पाता जो आज भी साधनहीन है‌। जो वर्ग आर्थिक रूप से सक्षम एवं संसाधनों से परिपूर्ण है उसे आरक्षण की आवश्यकता नहीं है। वह प्रतिद्वंद्विता की रेस में सामान्य जातियों के समकक्ष खड़ा है।

फोटो साभार: pixabay

यहां बराबरी की दरकार किसे है? सब अपना राजनैतिक हित साधने में लगे हैं। हमने कभी देखा ही नहीं कि आज भी दलित की हालत यथास्थिति वही है। यह सारे मुद्दे समाज मे समरसता और समावेशी माहौल कायम करने के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं परंतु आरक्षण ने सिर्फ कुछ हद तक ही आर्थिक गैरबराबरी दूर करने का काम किया है।

समानता कायम होने पर आरक्षण की ज़रूरत नहीं

समाज में व्यापक फैले जातिगत हिंसा, शोषण, दमन और बहिष्कार को दूर करने के उपाय तलाशने होंगे। सबसे अहम बात यह है कि हमें समाज के तौर पर मानसिक रूप से समानता को सहज रूप से स्वीकार करने की ज़रूरत है। जब हम एक समाज के तौर पर समानता कायम कर लेंगे फिर आरक्षण की आवश्यकता नहीं रहेगी।

इसके लिए सबसे पहले अगड़ी जातियों को अनुचित अभिमान और मिथ्या गर्व का बोझ मस्तिष्क से निकाल फेंकने की ज़रूरत है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि प्रकृति ने जब मनुष्य के निर्माण में भेद नहीं किया तो हम कौन होते है जन्म के आधार पर विच्छेद करने वाले।

जो व्यक्ति सामाजिक दीवार के उस पार खड़ा है, उसका भी स्वाभिमान और प्रतिष्ठा हमारे बराबर है। समता का लक्ष्य तभी संभव है, जब रूढ़िवादी अपनी धारणा की जंजीरे तोड़ने में सक्षम हो और प्रगतिशीलता की ओर कदम बढ़ाकर समाज सृजन के सहभागी हो।

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