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महिलाओं को देवी का दर्जा देने वाला समाज अपने घर-समाज की लक्ष्मियों के साथ दोहरा व्यवहार क्यों करता है?

NEW DELHI, INDIA - DECEMBER 16: DU students and members of Asmita Theatre Group hjold placards and shout slogans during a protest against government as Nirbhaya and other rape survivors haven't received justice, on the seventh anniversary of the Nirbhaya rape case, at Jantar Mantar on December 17, 2019 in New Delhi, India. (Photo by Raj K Raj/Hindustan Times via Getty Images)

16 दिसंबर, 2012 के बाद हर साल आने वाला यह दिन आते ही निर्भया के दर्द को ज़हन में ज़िंदा कर जाता है। उसकी पीड़ा जब ख्यालों में उतरती है तो एक असहनीय दर्द बिना किसी टीस के उभरता है। ख्याल छटपटाने लगते हैं कि धार्मिक आस्थाओं में महिलाओं को देवी का दर्जा देने वाला समाज अपने घर-समाज की लक्ष्मियों के साथ दोहरा व्यवहार क्यों करता है?

यही नहीं और भी कई सवाल जे़हन में उभरने लगते हैं जैसे क्या उस घटना के बाद कुछ बदला है। हलिया हाथरस की घटना को देखता हूं तो दिल व दिमाग कह उठते हैं नहीं। बस यहीं पर रामशंकर विद्रोही की कविता याद आने लगती है जिसमें वह कहते हैं-

आखिर क्या बात है कि

प्राचीन सभ्यता के मुहाने  पर एक औरत की जली हुई लाश मिलती है।

और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां मिलती हैं।

जिसका सिलसिला, सीथिया के चट्टानों से लेकर सवाना के जंगलों तक फैला है।

सभ्यता की शुरुआत से पैदा हुए सवाल का जवाब सभ्यता के अंत के बाद भी मिलेगा कभी? 16 दिसंबर आते-आते देश के कोने-कोने में एक के बाद एक निर्भया, कहीं हैदराबाद में तो कही उन्नाव में तो कहीं रांची में तो कहीं मुज़फ्फरपुर में, कहीं हाथरस में, न जाने देश के कितने ही हिस्सों में जलती, जलाई, बालिग, बच्ची, बुढ़ी, कमसिन, कई-कई रूपों में दिखने लगती है।

याद तो यह भी आता है कि हैदराबाद की घटना में जघन्य आरोपी को गोली से मार गिराया गया। उस समय पूरे विश्वास के साथ कहा गया पुलिस ने जो किया उससे डर पैदा होगा, कोई अब यह काम नहीं करेगा। फिर भी कई घटना अगले कुछ हफ्तों में सामने आईं। फिर सरकार, महिला सुरक्षा, पुलिस सब कटघरे में। अत: यह तो तय हुआ कि गोलियों की ठांय-ठांय से फ्रिकमंद होना न ही तार्किक है न ही न्यायसंगत न ही समस्या का हल।

सवालों के साथ-साथ बहुत से अधूरे सवाल जूझ रहे हैं

इन घटनाओं के बाद पीड़ितों की सुरक्षा का इंतजा़ाम क्यों नहीं किया जाता है? गरीब, पीड़ित परिवारों को मुकदमा लड़ने की सहायता सरकार क्यों नहीं देती? सवा लाख से अधिक मामले लंबित क्यों पड़े हैं? निर्भया कोष की 90 फीसदी राशि क्यों नहीं खर्च हो सकी? क्या इन सवालों पर उस जनता को सवाल नहीं पूछने चाहिए। उस सरकार से जिनको वह वोट देकर चुनती है? क्या फांसी की मांग करके ही बलात्कार जैसे जघन्य कृत्य का समाधन किया जा सकता है?

महिला सुरक्षा के वादे से चुनी हुई सरकार महिलाओं को सुरक्षा क्यों नहीं दे पाती है? महिला सुरक्षा के नाम किए गए वादे कभी पूरे क्यों नहीं हो पाते हैं? ज़ाहिर है यह सवाल सीधे तरीके से महिला सुरक्षा से जुड़े हैं और इन तमाम सवालों को एक लंबा सफर पूरा करना है। इस सवालों के जवाबों के बिना महिला सुरक्षा की तमाम बातें अधूरी हैं। अंत में फिर रामशंकर विद्रोही वाली कविता मुझे कचोटने लगती है जिसमें वह लिखते हैं,

मेरी चिंता यह है कि भविष्य में वह आखिरी स्त्री कौन होगी, जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा? मैं नहीं जानता लेकिन जो भी होगी मेरी बेटी होगी और यह मैं नहीं होने दूंगा।

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