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सैनिटरी पैड्स के पहले टेलीविज़न विज्ञापन से लेकर अब तक क्या कुछ बदल गया

sanitary pads

Representational image.

सैनेटरी पैडस का आविष्कार प्रथम विश्वयुद्ध (1914 – 1918) के दौरान घायल सैनिकों की  देखभाल करने वाली नर्सों ने किया, तब  घायल सैनिकों के उपचार के लिए लकड़ी के छाल से बना बैंडेज़  का इस्तेमाल किया जाता था, जिससे सैनिकों के बहते रक्त एवं घावों को जल्द से जल्द सुखाने में आसानी होती थी।

उस समय उन नर्सों ने ही अपने पीरियड्स के दौरान इन बैंडेज़ को पैड्स के रूप में भी इस्तेमाल शुरू किया। यही वो था जब से शुरू हुआ पैड्स का इस्तेमाल, जो आज तक होता आ रहा है। 

1920 में दुनिया ने जाना पैड्स क्या है?

विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद बहुत बड़ी मात्र में बैंडेज़ बनाने के लिए लाया गया कच्चे माल का ढेर बच गया, अब प्रश्न ये था इसका क्या करें? तभी साल 1920 में एक कंपनी ने इसके इस्तेमाल से ‘कोटेक्स’ नाम का पैड बनाया, जिसको महिलाओं ने इस्तेमाल करना शुरू किया।

आज की तरह ही उस वक़्त दुनिया के अलग-अलग देशों में पीरियड्स को गंदा माना जाता था, इसको लेकर चर्चा नहीं की जाती थी। महिलाएं बताने में शर्म महसूस करती थीं, पीरियड्स के समय को हर किसी से छुपा के रखा जाता था। 

1985 में दुनिया में पहली बार पैड्स का टेलीविज़न पर प्रसार हुआ

अमेरिका जैसे विकसित देश में भी उस वक़्त तक पीरियड्स को लेकर बातें नहीं होती थी, इसका एक सबूत यह भी है की 1928 से टेलीविज़न का प्रसारण शुरू होने के बावज़ूद भी पीरियड्स शब्द, जो कि महिलाओं से जुड़ी एक प्राकृतिक प्रक्रिया है इसके विषय में कोई बात नहीं की गई थी।

इसके बारे में बात आज से मात्र 35 वर्ष पूर्व पहली बार 1985 में “तेम्पैक्स” नाम के पैड के प्रचार से हुआ। अमेरिका के लोगों ने पहली बार अमेरिकन टेलीविज़न से पैड्स का प्रचार का प्रसारण देखा।

आज महिलाएं पैड्स के साथ-साथ  मेंस्ट्रुअल कप , क्लॉथ पैड्स, टैम्पोन, और पैंटी पैड्स का भी इस्तेमाल कर रही हैं, साथ-ही-साथ दुनिया भर के शहरी इलाकों में रहने वाले वाले शिक्षित लोग कुछ हद तक पीरियड्स को लेकर जागरूक भी हैं,

इससे होने वाले फायेदे और नुकसान दोनों को भलीभांति जानते हैं। हालांकि भारत और पूरी दुनिया में अभी भी एक बड़ी आबादी है, जो इससे  बहुत दूर है, जहां अभी पीरियड्स को लेकर जागरूकता की ज़रूरत है।

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे; भारत में 36% महिलाएं ही पैड्स का इस्तेमाल करती हैं 

अगर भारत की बात करें तो ‘नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे’ 2015-16 के आंकड़े के अनुसार भारत में 36 प्रतिशत महिलाएं ही पीरियड्स के दौरान पैड्स का इस्तेमाल करती हैं, बाकी महिलाएं पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती हैं, यानि वो सब कपड़े, रुई या फिर किसी न किसी घरेलू उपाय पर निर्भर रहती हैं।

गाँव-गाँव तक पैड्स पहुंचाने वाले अरुणाचलम मुरुगानंथम

साल 2018 में एक हिंदी फिल्म ‘पैड मैन’ बनाई गई, जिसमें अक्षय कुमार, सोनम कपूर और राधिका आप्टे ने मुख्य किरदार निभाया। यह फिल्म भारत के मेंसट्रूअल मैन, टैंपोन मैन, पैड मैन आदि नामों से जाने, जाने वाले तमिलनाडू के रहने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता अरुणाचलम मुरुगानंथम के जीवन पर बनाई गयी है। 

इस फिल्म में दिखाया गया है की कैसे उन्होंने इस विषय को गंभीरता से लिया, जिस पर लोग बात करने से भी कतराते हैं और अपने दम पर घर पर ही सस्ते दामों में पैड बनाने में सफलता पाई, जिससे आज सस्ते पैड्स की गाँव गाँव तक पहुंच हो सकी। 

उन्होनें पीरियड और पैड को समझने के लिए तमिलनाडू में अपने गाँव में रह कर ही एक लम्बी रिसर्च की। इस सबके दौरान उन्हें कितने ही सामाजिक दबाव से गुज़रना पड़ा, यहां तक कि उनकी पत्नी ने भी इस सबमें उनका साथ नहीं दिया।

लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और एक दिन ऐसा भी आया जब उन्होनें पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर करने को मज़बूर कर दिया। आज वो एक सफल कारोबारी है, गाँव में पैड्स की मशीनें लगा कर महिलाओं को सशक्त बनाने के साथ-साथ ही हर घर तक सस्ते दामों में पैड्स की उपलब्धता सुनिश्चित कर रहे हैं।


संदर्भ- एक्सप्लोर मोड, एनडीटीवी

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