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यौन शोषण की परिस्थिति में अपराधबोध की जगह लड़ना ज़रूरी है

फेसबुक पर स्त्री मुद्दों पर लिखने के दौरान बहुत सारी महिला दोस्तों ने सेक्सुअल हरासमेंट के बारे में मुझसे अपनी आप-बीती शेयर की। कुछ ने तो अपने साथ घटित बलात्कार की भी बात साझा की, जिसको उन्होंने अब तक गोपनीय रखा हुआ था। क्यों? शायद इसलिए कि उनके अंदर का बोझ, गुस्सा और उस घटना के समय तत्काल कुछ ना कर पाने का मलाल कुछ कम हो सके।

कई महिला दोस्तों ने बताया कि जब उनके साथ सेक्सुअल हरासमेंट की घटना हुई और जब तक वह कुछ समझ पातीं, तब तक प्रतिक्रिया का समय निकल गया और वह रिऐक्ट नहीं कर सकीं, अपना विरोध नहीं जता सकीं या उसको दो थप्पड़ नहीं लगा सकीं।

आज भी कहीं-ना-कहीं ऐसा ना कर पाने का मलाल और अपराधबोध उनके मन में है। शायद मुझसे शेयर करके वे इसे ही कुछ कम करना चाहती थीं। कुछ दोस्तों ने पूछा कि मैं विरोध क्यों नहीं कर सकी? ऐसा कभी आइन्दा हो तो क्या करना चाहिए और अब तक जो अपराधबोध और मलाल है उसका क्या किया जाए?

मेरी सलाह और मेरा मानना यह है कि जो भी महिला साथी इस तरह की परिस्थिति में हैं अथवा कभी खुद को पाएं तो कुछ बातों की मन में गांठ बांध लें-

मन में अपराधबोध ना रखें 

आपके साथ जो हो चुका है, उसपर पछताने, अपराधबोध के बोझ से दबा महसूस करने, बेइज्ज़ती महसूस करने अथवा शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है। गलती आपने नहीं की है इसलिए दूसरों की घटिया करतूत की सज़ा खुद को तो बिल्कुल ना दें। ये सब उसके लिए छोड़ दें, जिसने आपके साथ ऐसा किया है।

खुद को गलत सोचकर तथाकथित समाज को सही साबित ना करें

यह बात जान ले कि समाज ने आपके शरीर की कीमत तय कर रखी है, आपकी वैल्यू उन्होंने परिवार-जात-बिरादरी-समाज की इज्ज़त से बांध रखी है, आपकी स्वतंत्र पहचान को उन्होंने आपकी देह से अटैच कर रखा है। ऐसी किसी घटना पर आप शर्मिंदा, अपराधबोध अथवा बेइज्ज़त महसूस करके उन्हीं को सही साबित कर रही हैं।

समाज ऐसी किसी घटना पर बकवास करता है कि ‘उसकी इज्ज़त लुट गई’, ‘वो ज़िन्दा लाश बनकर रह गई है’, ‘अब जीकर क्या करेगी’, ‘कौन करेगा उससे शादी’, ‘कैसे मुंह उठाकर जी पायेगी वो बेचारी’ इत्यादि। इन बातों को आप अपने ऊपर अप्लाई भी कर लेती हैं। क्यों भला?

पहले इन बेमतलब की बातों को अपने ऊपर बेअसर कीजिये। सर ऊंचा करके चलें, नज़रें मिलाकर चलें, सीना तानकर चलें क्योंकि गलती आपने नहीं किसी और ने की है। बेचारा-बेचारी इस समाज की सोच है, आप नहीं हैं। इस फर्ज़ी इज्ज़त के बोझ को उतार फेंकिए। अगर आप ज़िन्दा हैं, खुश हैं, बेखौफ हैं तो इज्ज़त की किसे परवाह।

आपने यौन शोषण का विरोध क्यों नहीं किया?

इसका का भी उत्तर आपकी सोशल कंडीशनिंग में छिपा है। उस वक्त विरोध करने के बाद कोई साथ नहीं खड़ा हुआ तो, मैं खुद को सही साबित ना कर पाई तो, टाइप की सोच एक साथ दिमाग में चलने के कारण विरोध नहीं कर सकीं।

कोई बात नहीं। आइंदा के लिए सतर्क हो जाइए, भीड़ में हो तो कूट देना, हल्ला मचा देना, बवाल काट देना। शर्मिंदगी, बेइज्ज़ती टाइप का मत महसूस करना बिल्कुल भी नहीं, क्योंकि विरोध करोगी तो भीड़ में बहुत से अच्छे लोग भी होते हैं, जो आपके साथ खड़े हो जाएंगे और कुछ तो अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए भी आपके पक्ष में खड़े हो जाएंगे।

खुद से चुप ना रहने की प्रॉमिस कीजिए

ऐसी घटना के बाद आपको अगर कुछ महसूस ही करना है तो वह है गुस्सा और फिर उस गुस्से को चैनलाइज़ करना है। अपने साथ ऐसा होने पर चुप ना रहने की खुद से प्रॉमिस द्वारा, अन्य किसी महिला दोस्त के साथ ऐसा ना होने देने की कसम द्वारा।

हर हाल में अपनी लड़ाई जारी रखो

कई बार होता है कि ऑफेंडर आपसे शारीरिक, सामाजिक या फिर पेशे की हैसियत से मज़बूत है और आप तुरंत प्रतिक्रिया नहीं कर सकीं या सच कहो तो डर गईं, तो भी कोई बात नहीं। बाद में ही सही हिम्मत जुटाओ और पुलिस में जाओ, मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री, सोशल मीडिया, न्यूज़ मीडिया सब जगह बवाल मचा दो लेकिन छोड़ो मत। घर वाले साथ ना दे तो अकेले भिड़ जाओ लेकिन ज़िन्दा लाश, इज्ज़त लुटी, शर्मिंदगी की मारी बनकर अपराधबोध मत ढोना।

सिर्फ अपनी नहीं, अपनी जैसी दूसरी लड़कियों के बारे में भी सोचो

अक्सर ऐसे लोग जान-पहचान या रिश्तेदार-परिवार के लोग होते हैं। ऐसे में तो और भी ज़ोर से बोलो। सिर्फ अपने बारे में नहीं, अपने जैसी लाखों लड़कियों के बारे में सोचो। बोलोगी तभी आपके साथ माँ-बाप या कोई भी खड़ा होगा, वरना सब आपको ही चुप रहने की सलाह देते रहेंगे।

कानूनी रूप से अवेयर रहें

यौन शोषण से संबंधित सभी कानूनी प्रावधानों व प्रक्रियाओं की जानकारी रखें, इससे भी संबल मिलता है।

अंतिम बात यह कि समाज हमेशा से आपके शरीर को ‘इज्ज़त’, ‘पहचान’ से जोड़कर उसकी ‘कीमत’ तय करता है। इसी ‘कीमत’ के आधार पर आपकी सेक्सुअलिटी, मोबिलिटी, शादी, संपत्ति सबकुछ कंट्रोल करता है समाज और मौका मिलते ही भुनाने की भी कोशिश करता है।

समाज, यौन शोषण, बलात्कार की स्थिति को ‘इज्ज़त लुट’ जाना कहता है और जब तब आप भी ऐसा ही मानती रहेंगी, तब तक आप उन्हीं को सही ठहरा रही होंगी। इस स्थिति में आपको अपराधबोध भी होगा, शर्मिंदगी भी होगी, पहचान की संकट भी आएगी। इसी ‘कीमत’ ‘इज्ज़त’ को सबसे पहले दिमाग से निकालिए! आपका अस्तित्व, आपकी आज़ादी इसकी मोहताज़ नहीं है।

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लेखक के बारे में- तारा शंकर दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षक हैं। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से सोशल जियोग्राफी की पढ़ाई की है और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा पर पीएचडी की है। वे सोशल मीडिया पर जेंडर आधारित भेदभाव पर लगातार मुखर रूप से लिखते रहते हैं।

(नोट- यह लेख पहले मेरा रंग की वेबसाइट पर पब्लिश हो चुका है।)

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