जॉर्ज फ्लॉयड की घटना ने हम सभी के बीच फैले नस्लवाद के वायरस के खतरे को एक बार फिर बड़े स्तर पर हमारे सामने रखा है। अगर स्वयं के नस्लवादी रवैय्ये पर अंतर्मन से सोचें और समाज को देखें तो हमें अपने-आप से घृणा-सी होने लगेगी। हममें से कौन होगा जिसने बिना सोचे-समझे नस्लवादी टिप्पणियां नहीं की होंगी।
एक पैटर्न के तहत चल रहा है समाज
मैं 90 के दशक में पैदा हुआ। मेरे सभी साथी 21वीं सदी में पढ़े-लिखे इंजीनियर्स, डॉक्टर्स और भी अन्य कई प्रोफेशंस में हैं। अभी कोविड-19 के चलते स्कूल का वाट्सएप ग्रुप बना तो पता चला, उसमें ज़्यादातर शादीशुदा थे। 120 से भी ज़्यादा लोग लेकिन इनमें से किसी की भी दूसरे धर्म तो छोड़िये, किसी दूसरी जाति तक में शादी नहीं हुई थी।
यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि हमारे समाज का तथाकथित पैटर्न है। स्वर्णकार, स्वर्णकार से विवाह करेगा। जैन, जैन से करेगा। मुस्लिम, मुस्लिम से करेगा। ब्राह्मण-ब्राह्मण से करेगा। ब्राह्मण मित्रों ने तो उन्होंने तो उनके बाप-दादाओं के चुने हुए गोत्र में शादी की, यह ब्राह्मणों के अन्दर का उपजातिवाद है।
इन सब में बुरा और गलत क्या है? दरअसल इनमें से किसी को यह अंदाज़ा ही नहीं है। इन सभी की जाति-धर्म के अंधविश्वास और पाखण्ड के मामले में एक स्टैंड ना लेने की प्रवृत्ति ने अनजाने में ही इन कुरीतियों को अगली पीढ़ी तक ढोने का इंतज़ाम भी कर दिया है। बेहतर मानवीय मूल्यों के इंसान होने के नाते सबसे पहले आप अपने और अपने परिवार के जातीय और धार्मिक हिप्पोक्रेसी को बहुत छोटे-छोटे कदमों से खत्म कर सकते हैं।
परिवर्तन क्यों नहीं चाहता है समाज?
आपने सुना होगा कि बदलाव दुनिया का इकलौता कॉस्टेंट है। हमें क्यों ये डर होता है कि किसी दूसरी संस्कृति का व्यक्ति जब हमारे परिवार में आएगा तो क्या वह सबकुछ अडॉप्ट कर पायेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमें स्वयं की अडॉप्टीबिलिटी और कम्युनिकेशन पर डाउट होता है। इसलिए हम अपना कम्फर्ट तलाशते रहते हैं।
हम जानबूझ कर ऐसी कम्युनिटी में रच बस जाते हैं जहां स्वयं को कम-से-कम बदलना पड़े। इसीलिए हम मित्र भी ऐसे बनाते हैं, पार्टनर भी इन्हीं मित्रों के समाज में से चुनते हैं, बल्कि यूं कहूं कि अपने समाज पर छोड़ देते हैं कि वह हमें चुन कर दे ही देगा।
बदलाव भी किस चीज़ का? कपड़े पहनने, खाना खाने, अलग काम करने और पूजा करने के ढंग का जिनके बदलने का डर हमारे अंदर होता है। इन मामूली चीज़ों के लिए हम मानवीय मूल्य भूलकर बदलाव से बचने की कोशिश करते हैं।
सार्वजनिक निर्मम वीभत्स दंड का भय
जब कभी अंतरसांस्कृतिक संबंधों के बारे में हमारे कट्टरपंथी समाज को पता चलता है तो उस युवक-युवती को सार्वजनिक मंच पर कठोरतम सजाएं दे कर यह प्रयास किया जाता है कि लोगों की रूह कांप जाए और वे भविष्य में कोई भी ऐसा कदम ना उठा पाएं।
रोमियो-जूलियट, शीरीं-फरहाद, लैला-मजनू तो सिर्फ कहानियां हैं। ऐसे असली पात्र हर गली मुहल्ले में पाए जाते हैं। ऑनर-किलिंग हमारे समाज की एक कठोर सच्चाई है। हमारे आस-पास ही ऐसी नृशंश घटनाएं हो रही हैं। इसलिए ज़्यादातर लोग डर जाने को मज़बूर होते है।
रिश्तों के नस्लवाद की हिप्पोक्रेसी
मैं ऐसी कई लड़कियों को जानता हूं जो उनके साथ हुए भेदभाव के खिलाफ और नारी आज़ादी की समर्थक भी हैं लेकिन वे अपने बॉयफ्रेंड चुनने से पहले सबसे पहले उसका धर्म और जाति देखती हैं। क्योंकि समाज में दूसरे जाति को लोगों से उनका संंबंध कतई बर्दाश्त नहीं कर पाता है।
मैं मेरे ऐसे कई मित्रों को जानता हूं जिनके सम्बन्ध किसी दूसरी जाति, धर्म या संस्कृति के व्यक्तियों से थे लेकिन मन-ही-मन वे जानते थे कि उसके पुरातनपंथी घर वाले कभी इस सम्बन्ध को नहीं स्वीकारेंगे।
दहेज़ लिया भी जाता है और दिया भी जाता है। जब एक बार आप झुकना शुरू कर देते हैं तो फिर आपको कई बार झुकना पड़ता है। वैसे आज भी दहेज़ की रकम से शादी को सामजिक तौर पर बेहतर स्टेटस मिलता है।
अब आप सोचिये ज़रा उन दोनों व्यक्तियों के वर्ल्ड व्यू के बारे में, इस तरह मज़बूर होना मानसिक तौर पर कितना अपमानित महसूस कराता होगा। वे सारी आज़ादी होने के बाद भी बेड़ियाों से बंधा जीवन जीने को मज़बूर हैं। इनकी आने वाली पीढ़ी को वे कैसे आज़ाद पैदा माहौल दे पाएंगे।
नस्लवाद को शिक्षा और माइग्रेशन का काढ़ा ठीक कर सकता है?
मैं सागर क्षेत्र से हूं। अगर कोई व्यक्ति वहां पीएचडी भी कर चुका है। एक पर्टिकुलर प्रकार की मानसिकता वाले लोगों से ही उसका ताल्लुक होगा। इससे उसकी पीएचडी भी बायस्ड होगी, बल्कि अधूरी भी होगी।
दूसरा उदाहरण किसी ऐसे मज़दूर का ले लें जिसे जहां अच्छी मज़दूरी मिले वो वहां चला जाता है। इस मज़दूर से आपको शायद तरह-तरह के अनुभव मिल जाएं लेकिन चूंकि उसका उद्देश्य ज़्यादा मज़दूरी ही था इसलिए आपको उससे भी बेहतर सार्वभौमिक मानसिकता देखने को नहीं मिलेगी।
प्राथमिक शिक्षा के दौरान फॉरमेटिव इयर्स में बच्चों को अलग-अलग संस्कृतियों के प्रति जागरूक, सहनशील और मेल-जोल से रहना सिखाना होगा। जिन बच्चों के पिता ऐसी नौकरी में होते हैं जिनका बार-बार, अलग-अलग क्षेत्रों में ट्रांसफर होता है उनमें खुले विचारों की प्रवृति आप ज़्यादा देखेंगे।
मेरा सुझाव है कि भारत को संस्कृति-शिक्षा के मामले में पांच क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता है बिलकुल वैसे जैसे क्रिकेट के लिए पांच ज़ोन्स हैं। जिस प्रकार बच्चे विषय चुनते हैं उसी तरह उन्हें नवीं से ले कर बारहवीं कक्षा के छात्रों को शिक्षा के लिए भारत के दो अन्य ज़ोन में भेजा जाना चाहिए।
इससे वे भारत को भी बेहतर जानेंगे, उधार के ज्ञान और अनुभव के बजाय स्वयं सीखेंगे और उनकी क्षेत्रवादी, भाषावादी, नस्लवादी मानसिक प्रवत्तियां भी कम होंगी। सभी राज्य सरकारों और उनके सरकारी स्कूलों को इस कदम को लेकर आगे आना होगा। भारत को शिक्षा का बजट भी जीडीपी का कम-से-कम 10% करना होगा।
हम बचपन से सुनते आये हैं कि अनेकता में एकता भारत की विशेषता है। यह विशेषता अभी तक भारत की मज़बूरी कम और कमज़ोरी ज़्यादा रही है। हमारी विविधता का दुरूपयोग हमें एक ना होने देने के लिए किया गया है। अगर हम भारत को कभी भी मानवीय मूल्यों के आधार पर विकसित देशों में शामिल होते देखना चाहते हैं तो हमें भारत के जातीय-धार्मिक समीकरणों के विरोध में सिर्फ बात-चीत के अलावा ज़रूरी कदम भी उठाने होंगे।
मैं खुद एक हिन्दू अपर कास्ट से हूं। (जिसका मुझे कोई गर्व नहीं, मैं मेरा किसी भी जाति, धर्म, देश, संस्कृति में पैदा होना मात्र एक संयोग मानता हूं) मुझे यह भी पता है कि प्रिविलेज्ड क्लास से होने के कारण मुझे कहां-कहां फायदे हुए हैं, इसलिए जिस तरह के उदाहरण मैंने अपने आस-पास देखे वो मैं आपसे साझा कर रहा हूं।