अक्सर मैं जब शाम को छत पर आराम करता तो घर के पास लगे हुए विशालकाय पीपल के पेड़ के आस-पास कुछ टिमटिमाते हुए जुगनू नज़र आते थे, जिससे एक जादुई नज़ारा महसूस होता था। उन जुगनूओं में से कोई एक जुगनू अगर भटककर आंगन की तरफ आ जाता, तो हम उसे कांच के जार में बंद करने की कोशिश करते और उसका ध्यान से विश्लेषण करने के बाद उसे हवा में उड़ा देते थे।
एक दिन अचानक अहसास हुआ कि आखिर वह जुगनू कहां गए? अगर बच्चों को यह कहानियां सुनाऊं, तो आज उन्हें यह परीकथाओं जैसा लगेगा। वह जुगनू चले गए और मेरे लिए छोड़ गए कई सारी यादें कि कैसे मैं छत पर लेटकर दादी के साथ अंताक्षरी खेलता था और उनसे सवाल करता था कि यह जुगनू अपने अंदर बिजली का बल्ब कहां से लेकर आए हैं और उसे जलाते कैसे हैं? जितना अटपटा मेरा सवाल उतना ही अटपटा दादी का जवाब होता था। वह बोलती,
जुगनू अपने पैरों को इतनी स्पीड में घिसते हैं कि उनके पैरों से चिंगारी निकलती है, जो लाइट का बल्ब बन जाती है।
वे जुगनू आखिर गए कहां?
बहुत ही साधारण वजह है, जो शायद पर्यावरण की हर समस्या की जड़ है, वह है इंसान। हां, हमने ही इस समस्या को जन्म दिया है। जुगनू नरम और गरम इलाकों में तालाबों और नदियों के किनारों पर लकड़ी और जंगल के कूड़े को सड़ाने वाले लार्वा के रूप में पनपते हैं लेकिन जंगलों का कटना चरम पर है और भूखनन भी सक्रिय है। इंसानों के यातायात के लिए वनों और जंगलों के बीच से रास्ते बनाए जा रहे हैं।
साथ ही वैज्ञानिकों का मानना है कि जुगनू संदेशों के आदान-प्रदान के लिए खुद की रोशनी का इस्तेमाल करते हैं लेकिन इंसानों ने जंगलों के बीच जो रास्ते बनाए, उसमें तेज़ स्पीड कारें हेडलाइट जलाती हुई फर्राटा भरती हुई दौड़ती हैं। साथ ही सड़कों पर मौजूद स्ट्रीट लाइट्स उनके कम्युनिकेशन के तरीकों में बाधा उत्पन्न करती हैं। कई बार नर जुगनू और मादा जुगनू के बीच सहवास के संदेशों के आदान-प्रदान की मुश्किलें सामने आती हैं, जो आने वाली पीढ़ियों की संख्या को कम कर देती है।
चकाचौंध हमें पसंद है लेकिन जुगनुओं के लिए यह आपदा है। उन्हें उनके वर्षा वनों और जंगलों में चैन से जीने दो। ऐसा करने पर वह कभी मन बनाकर वापस आएंगे और हमें थैंक्स कहेंगे, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ियां हमारी सुनाई हुई कहानियों को केवल परीकथा नहीं बल्कि हकीकत समझेगी।