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“अस्पताल के कर्मचारी हम TB मरीज़ों को देखकर मुंह बनाते थे”

मेरा नाम यशवंत अमृत मराठे है। मैं मुंबई का रहने वाला हूं और मेरी उम्र 21 वर्ष है। जब मैं 18 साल का था तब मैं पहली बार टीबी रोग से ग्रसित हुआ। तब मैं बी कॉम फर्स्ट ईयर की पढ़ाई के साथ अन्य कामों में शामिल था। इसी दौरान खानपान की अनियमितता और सही दिनचर्या ना होने की वजह से मुझे टीबी रोग हुआ।

आरम्भिक लक्षण

मुझे हर शाम को बुखार आना शुरू हो गया था और सुबह होने तक वह बुखार चला जाता था। 2 से 3 हफ्तों से खांसी हो रही थी। खांसी और बुखार की दवाइयों का नियमित रूप से सेवन ना करने की वजह से मुझ में टीबी के लक्षण दिखाई देने लगे।

छाती के एक्स-रे द्वारा पता चला कि छाती में सफेद धब्बे निर्माण हो चुके हैं। इसलिए मेरे फैमिली चिकित्सक ने मुझे निजी अस्पताल में चेस्ट स्पेशलिस्ट के पास भेजा। वहां पर मेरी 2 तरह की जांच की गई। पहली जांच से मुझे फर्स्ट लाइन टीबी है ऐसा बताया गया और दूसरी जांच से यह पता चला कि मुझे सेकंड लाइन टीबी है। उस वक्त डॉक्टर ने फर्स्ट लाइन टीबी की दवाइयां शुरू करना उचित समझा।

फर्स्ट लाइन टीबी की जांच के दौरान मुझे ज़्यादा तकलीफ नहीं हुई। 4 महीने गुज़र जाने के बाद मेरी रिपोर्ट में यह बताया गया कि कुछ दवाइयां मुझ पर असर नहीं कर रही हैं। इसलिए मुझे सेकंड लाइन टीबी (MDR) के उपचार के लिए सरकारी अस्पताल में भेजा गया। वहां पर मुझे 2 साल तक दवाईयां और 6 से 7 महीने तक इंजेक्शन लेने को कहा गया। घर के नज़दीक वाले टीबी सेंटर से मुझे सारी दवाइयां और इंजेक्शन्स मुफ्त में प्रदान किए गए।

MDR टीबी की जांच होते ही मुझे मुसीबतों का सामना करना पड़ा

अचानक वज़न कम होना, बदन दर्द करना, चलने-फिरने में तकलीफ होना, मन में बुरे खयाल आना, आंखों की रौशनी कम होना, इन सारी तकलीफों से मैं जूझ रहा था। तब मुझे TB का इलाज कराते हुए लगभग एक साल हो गए थे। उस समय मेरी मानसिक स्थिति बहुत ही बुरी हो गई थी।

कभी अचानक गुस्सा आ जाता था, तो कभी बस रोने का मन करता था। जब भावनाओं को व्यक्त करना मुश्किल हो जाता था तो कभी-कभी खुद को भी शारीरिक नुकसान पहुंचा देता था। मन में भविष्य और परिवार को लेकर कई बुरे ख्याल आते थे। इसी समय मैंने अपने मानसिक स्वास्थ्य के लिए मदद लेनी शुरू की। मुझे डिप्रेशन था, जिसके लिए मुझे कुछ दवाईयां भी दी गईं।

TB एक शारीरिक लड़ाई  के साथ-साथ मानसिक लड़ाई भी होती है।

MDR टीबी की जांच के दौरान मैं बी कॉम सेकंड ईयर की पढ़ाई कर रहा था। सभी ने मुझे कुछ दिन पढ़ाई रोकने की सलाह दी मगर मैंने पढ़ाई जारी रखने का निर्णय लिया। मैंने एक बात गाठ बांध ली थी कि आज जो भी परिस्थिति मेरे सामने है, वह मुझे अंदर से और भी बेहतर बनाने के लिए है।

ब्रह्माकुमारी सेंटर में जाकर राजयोगा मेडिटेशन करने से मुझ में सकारात्मकता निर्माण हुई। मेरी इसी सकारात्मक सोच की वजह से मैंने अपने बी कॉम की पढ़ाई बिना ATKT के साथ पूरी की। साथ ही मैंने इंडस्ट्रियल अकाउंटेंट का कोर्स भी पूरा किया। एक वक्त ऐसा भी आया कि परीक्षा के दिनों में मेरे घर की बिजली 3 दिनों तक बंद थी। उस वक्त मैं अपने दोस्त के घर जाकर पढ़ाई किया करता था।

परिवार का मिला भरपूर सहयोग

उपचार के दौरान मुझे घर के सदस्यों और मित्रों का पूरा सहारा मिला। मेरे परिवार के सभी सदस्य मेरी मुश्किलों को समझते थे। मेरे पोषण और आहार का ज़िम्मा लेने से लेकर मेरे इलाज की हर ज़रूरत पूरी करना, मेरे परिवार ने मुझे आर्थिक सहयोग के साथ-साथ मानसिक सहयोग भी प्रदान किया।

मेरे दोस्तों ने भी मेरी बहुत मदद की। वे यह सुनिश्चित करते थे कि मैं अच्छा पौष्टिक आहार ले रहा हूं। मैं अकेला ना महसूस करूं और यहां तक कि वे कभी भी मेरे साथ मेरे चेक-अप के लिए भी चले जाते थे। TB से आज़ादी पाने की इस लड़ाई में मेरा परिवार और मेरे दोस्त ही मेरी ताकत का स्रोत थे।

उपचार के दौरान मुझे और भी कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा। जैसे सरकारी अस्पताल के डॉक्टर्स का बर्ताव ठीक नहीं था। दवाइयों के सेंटर पर जो अन्य अधिकारी थे, वे टीबी मरीज़ को देख कर मुंह बनाते थे। दवाइयों के सेंटर पर लिफ्ट ना होने के कारण मुझे 4 मंज़िल तक चढ़कर जाना पड़ता था और इसी वजह से कई बार चक्कर आता था। सरकार द्वारा प्राप्त दवाइयां कम अच्छी क्वालिटी की हुआ करती थीं।

पिताजी ऑटो चालक हैं

पिताजी ने मेरे पूर्ण इलाज के दौरान कभी भी किसी भी तरीके की कमी नहीं आने दी। वह ऑटो चालक होने के बावजूद इलाज के दौरान मुझे आर्थिक समस्याओं का सामना नहीं करने दिया। ADR (एडवर्स ड्रग रिएक्शंस) के इलाज के लिए दूसरे अस्पताल जाना होता था, जिसका पूरा खर्चा मुझे खुद उठाना पड़ता था।  सरकार द्वारा टीबी की दवाइयां तो मुफ्त में मिल जाती हैं मगर मल्टी-विटामिन्स और कैल्शियम आदि का खर्चा हमें खुद ही उठाना पड़ता था।

सरकार द्वारा डी बी टी स्कीम के तहत हर TB मरीज़ को 500 रुपये प्रति महीना दिया जाता है। अफसोसनाक बात यह है कि वह पैसे सही वक्त पर ज़रूरतमंद मरीज़ों के पास नहीं पहुंचते। इसी कारण कई दफा हमें सरकारी दफ्तरों और अस्पतालों के कई चक्कर काटने पड़ते हैं।

अगर हमें टीबी को जड़ से खत्म करना है, तो उपचार प्रणाली में सुधार की ज़रूरत है। हर मरीज़ की मासिक काउंसलिंग होनी अती आवश्यक है। सरकार को पोषक आहार के साथ हर एक मरीज़ को प्रति महीना कम-से-कम 3000 रुपयों का मुआवज़ा देना चाहिए। ताकि सभी मरीज़ अपना इलाज पूरा कर सकें।

देश में TB संबंधित जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत है। TB को जड़ से खत्म करने के लिए मैं भी इस मिशन में सहयोग करना चाहता हूं।


नोट: लेखक यशवंत मराठे एक MDR टीबी विजेता हैं और TB फेलो भी हैं।

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