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सिस्टम और खुद के मूल अर्थ को बयां करती है “कागज”

सलमान खान और सतीश कौशिक की बैनर तले बनी फिल्म कागज सच्ची कहानी से प्रेरित है. जिसमें लाल बिहारी मृतक के जीवन संघर्ष की कहानी दिखाई गई है हालांकि, फिल्म में किरदारों के असली नाम इस्तेमाल नहीं किए गए हैं. फिल्म का निर्देशन व लेखन सतीश कौशिक ने ही किया है. जिसमें पंकज त्रिपाठी, मोनल गज्जर, मीता वशिष्ठ, अमर उपाध्याय मुख्य किरदार में हैं. फिल्म हास्य-व्यंग के जरिए आम आदमी और सरकारी व्यवस्था पर गहरी चोट डालने की कोशिश करती है.

क्या है फिल्म की कहानी ?

कहानी शुरू होती है सलमान खान की आवाज के साथ जिसमें वो कविता बोल रहे हैं कि “कुछ नहीं है मगर है सबकुछ भी, क्या अजब चीज है ये कागज भी…” समय है सन् 1977  का जब देश में इमरजेंसी लागू थी. यह कहानी है अमिलो गांव, जिला आजमगढ़, यूपी के रहने वाले भरत लाल (लाल बिहारी मृतक) की, जो बैंड बजाने का काम करते हैं. वह अपने काम और जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हैं. मगर लोगों के समझाने और पत्नी ( मोनल गज्जर ) के डांटने के बाद वह बैंक कर्ज लेने जाते हैं. जहां उन्हें कर्ज लेने का प्रोसीजर पता चलता है.

यहीं से कहानी अपने असली ट्रैक पर आती है. जब वह खलीलाबाद रह रहे अपने चाचा-चाची के पास जाते हैं. अपने घर के कागजात लेने के लिए. वहां उन्हें पता चलता है कि उनके चाचा-चाची और भाईयों ने सरकारी कागज पर उन्हें मृत साबित करके सारी जमीन हड़प ली है. बस यहीं से उनका संघर्ष शुरू हो जाता है. अब वह खुदको जीवित साबित करने के लिए नए-नए तरीके अपनाते हैं कभी कानूनी, कभी गैर कानूनी. इसमें उन्हें सफलता मिलती है या नहीं. वह सिस्टम से कैसे लड़ते हैं. यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी पड़ेगी.

पंकज त्रिपाठी के आस पास गढ़े गए किरदार

फिल्म की कहानी अच्छी है. बस एक बात जो खटकती है वह यह है कि फिल्म को देखकर ऐसा लगता है कि पंकज त्रिपाठी फिल्म के लिए नहीं बल्कि फिल्म पंकज त्रिपाठी के लिए है. सारे किरदार उनके आस-पास गढ़े नजर आते हैं. फिर चाहे वो पोलिटीशियन अशर्फी देवी (मीता वशिष्ठ) हो, रुखमणी (मोनल गज्जर) हो, एमएलले (अमर उपाध्याय) हो, साधोराम केवट (सतीश कौशिक) हो.

इससे परेह, बात करें काम की तो सभी कलाकारों ने अपना किरदार बखूबी निभाया है. पंकज त्रिपाठी (भरत लाल) एक आम गांव वाले का किरदार बहुत बारिकी से निभा जाते हैं. बोलने के अंदाज भर से वह दर्शकों के बीच अपनी छाप छोड़ते हैं. वहीं उनकी पत्नी का किरदार निभा रहीं मोनल गज्जर रुखमणी के किरदार में बेहद अच्छी लगी हैं. मीता वशिष्ठ (पोलिटीशन अशर्फी देवी) के किरदार को और बेहतर पेश किया जा सकता है. इसके अलावा साधोराम केवट (सतीश कौशिक) वकील के किरदार में ठीक-ठाक लगे हैं.

फिल्म में क्या अच्छा है और क्या बुरा ?

कहानी में कुछ सीन नॉस्टेल्जिया (पुरानी यादें) में ले जाते हैं. वहीं फिल्म में बोले कुछ डायलॉग आपको अंदर तक चोट देते हैं. जैसे पत्रकार से भरत लाल का कहना कि “खबर छापिएगा, चुटकुला नहीं”, वहीं अशर्फी देवी द्वारा बोला गया डायलॉग कि “हमारे सिस्टम का मसला गलती सुधारने का नहीं, गलती स्वीकारने का है”. इनके अलावा फिल्म में बोले व्यंगात्मक डायलॉग भी मजा बांधे रखते हैं.

इसमें कमी की बात करें तो फिल्म में संदीपा धर का आइटम सोंग गैरजरूरी लगता है. जो शुरू में गढ़े नॉस्टेल्जिया को कमजोर करने का काम करता है. साथ ही जहां फिल्म खत्म की जाती है उसे देककर ऐसा लगता है कि फिल्म को निपटाने की जल्दी है.

क्यों देखी जानी चाहिए ये फिल्म ?

छोटी-मोटी कमियों को साइड करें तो यह फिल्म अपनी मूल कहानी के लिए एकबार जरूर देखी जानी चाहिए. जो एक आम आदमी के संघर्ष को दिखाती है. कि कैसे वो आम से खास बनता है. साथ ही हमारे देश का सिस्टम जो आम लोगों के उत्पीड़न का अखाड़ा बन बैठा है उसकी भी पोल खोलती है. इसके अलावा पंकज त्रिपाठी के अभिनय के लिए भी यह फिल्म देखी जा सकती है.

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