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“मज़दूरों के साथ-साथ सत्ता के प्रति ईमान, जनतंत्र का भरोसा और बदलाव का यकीन भी मर गया”

Migrant Labourers

Migrant Labourers

मोदी के भारत में लॉकडाउन के दौरान लाशों में तब्दील होते मज़दूरों की खबरों ने पत्थरों का सीना भी छलनी कर दिया था। ज़िन्दगी की कशमकश में दौड़ते-दौड़ते इन मज़दूरों के पहले पैर रुककर थक गए फिर थका इनका हौसला और फिर धड़कनें।

शहरों में रोज़गार पर लगे ताले और पेट में मची भूख से तड़पते पैदल ही घर की तरफ चल दिए इन बेचारों को क्या पता था कि ज़िन्दगी आधे रास्ते में ही हांफने लगेगी और तो और यह उनकी ज़िंदगी का आखरी सफर है।

शहर में रहते हुए पेट की भूख से मिटाने के लिए कतारों में लगने वाले यह लोग राज्यों के बार्डरों की कतारों से धकेले और राष्ट्रीय राजमार्ग की सड़कों पर दौड़ाए भी गए हैं।

क्या सत्ताधीशों का एहसास मर गया है?

गोद में घायल पति को लिए चीखती औरत, ट्रेन की पटरी पर जिस्मों के चीथड़ों के साथ सूखी रोटी के टुकड़े, चूने के बोरों में दब गई लाशें और तारकोल के साथ सड़कों पर बिछ गए इंसानों को देखकर यह धरती चीत्कारों से हिल गई है। ऐसा लग रहा है जैसे कुछ बचा ही नहीं किसी के पास कुछ कहने को, सिवाय इस बात के कि क्या सत्ताधीशों का एहसास भी मर गया है जो मज़दूरों को मरने के लिए ऐसे ही छोड़ दिया है?

मज़दूरों की मौत के बाद इस मुल्क में शुरू होता है तो बस ट्विटर पर नेताओं की मगरमच्छीय संवेदनाओं का पर्यटन। जिसमें लगाई जाती हैं उन लाशों की बोली मानो मौत के सौदागर लाशों को मुंह चिढ़ाते हुए उनसे यह कर रहे हों कि “तुम्हारी दुनिया खाक हो गई तो हो गई। हम खरीद लेंगे तुम्हारी दुनिया, तुम्हारा दर्द तुम तो बस दाम बताओ दाम।”

जनता को मिलता मुआवज़ा, मुआवज़ा नहीं

दरअसल यह मुआवज़ा, मुआवज़ा नहीं बल्कि जनता के चुने हुए नुमाईंदों की जनता के प्रति बेईमानी और बेशर्म हो जाने की कीमत है। जब राज्य सरकारें केंद्र सरकार को दोषी ठहरा रही हों और केंद्र सरकार के सिपाही टीवी पर बीस लाख करोड़ में आने वाले ज़ीरो को नाखून के पोरों पर गिनाकर सरकार का गुड़गान कर रहे हों, तब टीवी में मुद्दों के बजाय आरोप प्रत्यारोप की होड़ मच जाती है। ऐसे में लगाया दिया जाता है आईटी सेल के लोगों को एक दूसरे पर आरोप मढ़ने के लिए।

सत्ता के नशे में चूर इन सत्ताधीशों को यह याद रखना चाहिए इक्कीसवीं सदी के उस भारत में सिर्फ मज़दूर नहीं मर रहे हैं बल्कि प्रवासी मज़दूरों के साथ साथ सत्ता का ईमान, जनतंत्र का भरोसा औऱ बदलाव का यक़ीन भी मर गया है।

ऐसे में इरतज़ा निशात साहब का बस एक शेर याद आता है

कुर्सी है तुम्हारा यह जनाज़ा तो नहीं है

कुछ कर नहीं सकते तो उतर क्यों नहीं जाते।

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