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वो वजहें जिनके कारण पूंजीवादी समाज स्त्रियों के साथ न्याय नहीं कर सकता

स्त्री प्रश्न प्राचीन इतिहास के पन्नों से भी झलकता है। हमारे देश में सती प्रथा ही काफी थी यह देखने के लिए कि कैसे हमारी स्त्रियां जानवरों से भी बद्तर हालात में रही हैं। कैसे उनके बड़े, पति, सास, ससुर, भाई, मां, बाप और बच्चे तक उनके साथ दास से भी बद्तर व्यवहार करते थे।

पर्दा प्रथा हर सभ्यता और समाज का हिस्सा रहा है और आज भी है। शिक्षा से उन्हें मरहूम रखा गया था, और आज भी लड़कियों में अशिक्षा का प्रतिशत लड़कों से अधिक है। घरेलू हिंसा आज भी बेहद भयावह स्थिति में मौजूद है। बलात्कार को धर्म से जोड़ा जा रहा है और जायज ठहराया जा रहा है। विरोध के स्वर को दबाने के लिए बलात्कार की धमकी दी जाती है।

एक उदहारण देना चाहूंगा, सेन्ट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में “विद्रोहियों” द्वारा अनेक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया था। पिछले 10-11 महीनों में ऐसे 50-60 बलात्कार हुए।

हरियाणा बंद (आरक्षण की मांग को लेकर आन्दोलन चल रहा था) के दौरान कई महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ था, इस खबर को दबाने के लिए सरकार, प्रशासन, पुलिस और मुख्य मीडिया ने भरपूर प्रयास किए थे। इस मामले में हाईकोर्ट ने कहा कि मुरथल में गैंगरेप हुआ था और इसके सबूत भी हैं। हाईकोर्ट ने चश्मदीदों के बयान और फटे कपड़ों को सबूत माना है।

वर्तमान सरकार के सत्ता में आने के बाद फासीवादी प्रक्रिया बड़ी तेज़ी से बढ़ी हैं। फासीवाद, पूंजीवाद का ही एक रूप है, जैसे क्रोनी पूंजीवाद, स्टेट कैपिटलिज़्म, आदि। फासीवाद पूंजीवाद का वह रूप है, जब यह भयानक आर्थिक जीर्णावस्था (Chronic Economic Recession) में होती है, आगे के हर विकास धूमिल हो जाते हैं, बड़े पूंजीपतियों का मुनाफा दर गिर जाता है और शून्य से भी नीचे जाने का खतरा होता है। साथ ही साथ मज़दूर वर्ग, किसान और सभी शोषित वर्ग विद्रोह का रास्ता अख्तियार करते हैं। तब राज्य और इसके सभी विभाग और प्रजातंत्र के हर स्तंभ, पूंजीपतियों का साथ देते हैं। यानि पूंजीवाद का सबसे घृणित, सड़ांध और हिंसात्मक रूप ही फासीवाद है।

फासीवाद में सबसे अधिक शोषण, उत्पीड़न और प्रताड़ना सर्वहारा वर्ग और स्त्रियों का ही होता है। महिलाओं की मुक्ति, बराबरी, सुरक्षा पूंजीवाद में ठीक वैसे ही संभव नहीं है, जैसे कि पूंजीवाद में बेरोज़गारी, गरीबी, महंगाई, अंधविश्वास, युद्ध का उन्मूलन नहीं किया जा सकता है।

पूंजी सबसे बड़ा रोड़ा है मज़दूर वर्ग, किसान, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, महिला, आदि के व्यक्तिगत और सामूहिक विकास में, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में, एक खुशहाल जीवन की प्राप्ति में, आध्यात्मिक विकास में।

यानि खंड-खंड में हम ना ही कोई लड़ाई जीत सकते हैं ना ही कोई सुविधा ले सकते हैं। यदि मिला भी तो क्षणिक होगा, जैसे कि दशकों की लड़ाई के बाद, भारत की स्वतंत्रता के बाद की जीती गई सुविधाएं या मांग को 1992 के बाद सुधार के नाम पर हमसे हड़प लिया गया। और अब तो हम स्वतंत्रता के पहले की स्थिति में जा रहे हैं, जहां हमारी व्यक्तित्व भी छिना जा रहा है, संचित संपत्ति पूंजीपति कानूनन हमसे हड़प रहे हैं।

याद रखें, महिलायों की मुक्ति बिना सर्वहारा वर्ग की मुक्ति, यानि पूरे शोषित वर्ग की मुक्ति के संभव नहीं है। साथ-ही-साथ यह भी उतना ही ध्रुव सत्य है कि बिना महिलाओं की भागीदारी के सर्वहारा वर्ग की मुक्ति संभव नहीं है।

स्त्री प्रश्न आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक है। बिना पूर्ण रूप में समझे, लड़ना मूर्खता है और इस लड़ाई को वापस बुर्जुआ वर्ग के हाथ में दे देना होगा, जिसके खिलाफ हम लड़ रहे हैं। अधिकांश महिलावादी आंदोलन शिकार हो चुकी हैं इस महिला विरोधी वर्गों की, मौकापरस्ती और गद्दारी के कारण। इसे समझने के लिए मेरे एक दोस्त का ये फेसबुक पोस्ट पढ़ें-

“स्त्री प्रश्न पर एक बार फिर”

“पूंजीवादी समाज, पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाला समाज होता है। इसमें पूंजीवादी उत्पादन पद्धति काम करती है। ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफा का हस्तगतकरण और निजी पूंजी में ज़्यादा-से-ज़्यादा वृद्धि इसका मुख्य लक्ष्य है। ज़ाहिर है, यह व्यवस्था अपनी इन ज़रूरतों के लिए स्त्रियों को घर से बाहर निकलने के लिए ना सिर्फ प्रेरित करती है, उन्हें घर से बाहर निकाल भी लाती है।

यहां तक कि इसके लिए उन्हें बाध्य करती है लेकिन, पितृसत्ता के साथ इसकी सांठ-गांठ के कारण उन्हें सती-सावित्री बनने के लिए भी बाध्य करती है। यानी स्त्रियां, पूंजीवादी समाज को सस्ता श्रम सहित मुनाफा हेतु अन्य तमाम सेवा उपलब्ध कराने के लिए फैक्ट्रियों से लेकर ऑफिसों में काम तो करें, लेकिन समाज में उनका स्थान दोयम दर्जा वाला हो और वे पितृसत्ता द्वारा लादे गए अलिखित नियमों का उल्लंघन ना करें। यानी, वे सती-सावित्री वाले आदर्श पर चलकर एक आदर्श नारी की भूमिका में रहें।

आज के क्रूर और वीभत्स बलात्कारियों की बीमार मानसिकता में भी स्त्रियों के प्रति यह रूढ़िवादी सोच शामिल है और इसी की एक अत्यंत क्रूर अभिव्यक्ति आज के अविश्वसनीय रूप से हो रहे हिंसक बलात्कारों में हो रही है। सामंती पृष्ठभूमि वाले भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति कल क्या थी? वे उनके हाथों का खिलौना भर थीं, खासकर गरीब-दलित व उत्पीड़ित जातियों की स्त्रियां। क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलनों ने उन्हें इस स्थिति से निकाला। आज एक बार फिर अलग पृष्ठभूमि में, जबकि क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन पीछे रह गया है, स्त्रियों को सामंती जकड़न सदृश्य हालातों में, या कहें इससे भी बुरे हालातों में धकेला जा रहा है।

फासिस्टों के सत्तारोहण में स्त्रियों की स्थिति गुणात्मक रूप से और अधिक कठिन हो गयी है। स्थिति अत्यंत असाधारण और दुर्गम हो चली है। बलात्कार तो हो ही रहे हैं, परंतु इसका सही तरीके से विरोध नहीं हो रहा है। देखा जाए तो उल्टे बलात्कार को फासिस्ट मानसिकता के तहत सही साबित करने की कोशिश हो रही है। कहा जा रहा है कि इसको रोका नहीं जा सकता है, क्योंकि यह समाज की स्वाभाविक विकृति है। इनके अनुसार पुरुष स्वाभाविक रूप से कामुक भेड़िया है। यह खुल्लमखुल्ला फासिस्ट विचारधारा है, जिसकी अनुगूंज आज हर जगह दिख रही है।

क्रांतिकारी आंदोलन और विचारधारा के हस्तक्षेप की कमी यहां साफ दिखती है। इसके कारण हो रहा नुकसान भी साफ दिख रहा है। सबसे बड़ा नुकसान यह है कि समाज का प्रभुत्वशाली वर्ग एक बार फिर से बलात्कारियों का भय दिखाकर और इससे बचने के नाम पर फिर से पुरातनपंथी, कूपमण्डूक और घोर रूप से प्रतिक्रियावादी व स्त्री विरोधी नुस्खों को परोस रहा है और स्त्रियों को ‘संस्कारी’ बहू, आदर्श पत्नी और बेटी बनाने का षड्यंत्र किया जा रहा है। यहां तक कि पतनशील पूंजीवादी समाज आज कल बाल विवाह को बलात्कार से बचने का उपाय और साधन बता रहा है।

स्त्रियों को इस तरह एक तरफ बलात्कार का सामना करना पड़ रहा है, तो दूसरी तरफ बलात्कारी माहौल और भय दिखाकर उन्हें एक बार फिर से घर-आंगन में कैद रहने के लिए विवश किया जा रहा है। इसमें पितृसत्ता और पूंजीवाद के बीच हुए गठजोड़ की भूमिका को समझना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

प्रश्न है, आखिर पूंजीपति वर्ग के वे कौन से आर्थिक हित हैं जो पितृसत्ता को टिकाये रखने के लिए इन्हें प्रेरित करते हैं? फासिज़्म के दौर में बलात्कार के जो नए आयाम सामने आ रहे हैं उसे भी समझने की कुंजी यही है कि यह पता लगाया जाए कि पितृसत्ता से पूंजपति वर्ग के कौन से आर्थिक हित की पूर्ति होती है।”

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