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कविता: “वक्त सब सीखा देता है”

मरेगा के तहत काम करते मजदूर।

मरेगा के तहत काम करते मजदूर।

वक्त सब सीखा देता है

कब चलना है, कब रुकना है

कब जगना है, कब सोना है,

कब हंसना है, कब रोना है

कब अड़ना है, कब झुकना है।

 

समय की चाल से भी आगे

कब-कब तीव्र निकल चलना है,

और खुद के भीगे नेत्रों से

कब खुद की प्यास बुझा लेना है।

वक्त सब सीखा देता है

कब चलना है……………

 

कभी-कभी जब पौरुष के आगे

दुनियां छोटी लगने लगती है,

 कभी-कभी जब मन के जीते

जीत नज़र आने लगती है।

विस्मय, संशय के भाव मनुज को

जब तनिक डिगा ना पाता है

तब तिमिरांचल को चीर,

वीर, रश्मि-किरण बिछा देता है

वक्त सब सीखा देता है

कब चलना है……..

 

किंकर्त्यविमूढ़ स्वयं हो जब

अपने सपनों से अंतर हो,

राणा की रोटी के समान

बनकर भी काम ना आ पाता।

तब अन्तर्द्वन्द लिए मन में

रह मौन विरह विष पी जाता,

अपने अश्कों को पलकों की

छावों में ही सूखा लेता है,

वक्त सब सीखा देता है

कब चलना है……

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