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विश्वासपरक राजनीति के लिए ज़रूरी है “राइट टू रिकॉल” को अपनाना

किसान आंदोलन के चलते प्रधानमंत्री हमेशा न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात कर रहे हैं लेकिन क्या पता यह भी कोई जुमला न साबित हो जाए?यही हालत दिल्ली के मुख्य मंत्री अरविन्द केजरीवाल का भी है। इन्होंने दिल्ली वासियों को फ्री वाई-फाई का वादा किया था, वह भी चुनावी जुमला बनकर ही रह गया है। धर्म और जाति के विरुद्ध बात करते हुए वो सत्ता में आए पर चुनाव आने पर कभी गुरूद्वारे जाकर पगड़ी पहनने लगते हैं, तो कभी वाराणसी जाकर गंगा में स्नान करने लगते हैं तो कभी मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ने लगते हैं। उनकी जाति और धर्मगत राजनीति के खिलाफ किये गए सारे झूठे साबित हुए हैं।

चुनावी जुमले वर्तमान राजनीति में एक चलन बन गया है

उधर लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव भी कम नहीं हैं। बिहार के चुनाव में तेजस्वी ने 10 लाख नौकरियों की बात करके अपने राजनैतिक जीवन को पुनर्जीवित कर दिया लेकिन वो यह काम कैसे करते, इसका कोई रोडमैप नहीं दिया। इसी तरह से अखिलेश यादव कोरोना के टीके के खिलाफ बिना किसी तथ्य के अवैज्ञानिक वक्तव्य जारी कर रहे हैं। उन्होंने इस तरह का वक्तव्य जारी कर दिया है कि वो टीका लेंगे ही नहीं। कुल मिला कर उनकी बस एक ही चिंता है कहीं इस टीकाकरण का लाभ भाजपा ना उठा ले और उसपर ये कि उनके समर्थक उनके इस बात से बहल भी जाते हैं।

काम हो ना हो पर काम का प्रचार ज़रूर हो रहा है। आज कल नेता लोग प्री रिकॉर्डेड रोबोटिक मैसेज़ भी मोबाइल पर भेज रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई कंपनी अपने प्रॉडक्ट का प्रचार कर रही हो। सारे लोग खुद को बस चर्चा में बनाए रखना चाहते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो वास्तविकता यह है कि जो अपना प्रचार बेहतर तरीके से कर गया वो चल जाता है।

राजनेताओं के झूठे वादों पर नकेल कसना बेहद ज़रूरी है

नेता लोग इस तरह के वक्तव्य केवल अपने राजनैतिक लाभ के लिए ही दे रहे हैं। चाहे इससे देश का भला हो या नुकसान। सबसे बड़ी समस्या यह है कि इस तरह के झूठे दावों और वादों पर नकेल कसने के लिए कोई कानून नहीं है। कोई भी नेता किसी भी तरह की भ्रामक प्रचार कर सकता है, झूठे वादे कर सकता है। दंड का कोई प्रावधान नहीं है, यह बहुत बड़ी खामी है हमारी व्यवस्था में।

नेता झूठी और भ्रामक बातें करके अपनी राजनीति चमकाते हैं। ठगे गए लोगों के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है कि चुनाव के समय उन्हें सरकार से बाहर कर दें। कुछ जवाबदेही एक नेता द्वारा किए गए चुनावी वादों के प्रति अवश्य होनी चाहिए। इन उपचारात्मक उपायों पर चर्चा करने की आवश्यकता है।

राइट टू रिकॉल को अपनाना बेहद ज़रूरी  है

अब समय आ गया है कि लोक नायक जयप्रकाश नारायण द्वारा सुझाए गए “राइट टू रिकॉल” को अपनाया जाए ताकि अगर कोई नेता अपने राजनीतिक अभियान के दौरान किए गए वादों को पूरा करने में अक्षम साबित होता है, तो जनता को ये अधिकार मिले कि वो चुनाव से पहले उस नेता को हटा सके। भारत के कई राज्यों में पंचायत और वार्ड स्तर की राजनीति में यह लागू भी है।

एक और सुझाव यह हो सकता है कि किसी भी राजनीतिक अभियान से पहले हर राजनीतिक पार्टी के लिए ये चीज़ आवश्यक बनाया जाए कि वो अपने चुनावी वादों (पूर्ण और अपूर्ण) की सूची को सार्वजनिक करें। अपने वादों को पूरा न करने के कारणों को सार्वजनिक करने के लिए हर नेता को कारण देना भी अनिवार्य किया जाना चाहिए।

सभी विधायक और सांसदों के लिए एक राष्ट्रव्यापी डेटा तैयार किया जाना चाहिए और उनके पिछले कार्यकाल में उनके प्रदर्शन के अनुसार उनकी रैंकिंग तैयार की जानी चाहिए। नए उम्मीदवार के लिए उसकी पृष्ठभूमि और चरित्रगत विशेषताओं पर विचार करना होगा।

इससे जनता को नई सरकार का चुनाव करने में आसानी होगी। कई अन्य तरीके भी हो सकते हैं, जिन पर बहस होनी चाहिए और ध्यान में लाना चाहिए ताकि भारत में एक स्वस्थ लोकतंत्र सुनिश्चित किया जा सके।

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