बाल यौन शोषण और आत्महत्याओं की घटनाओं के प्रतिशत से हम भलीभांति परिचित हैं। कभी आपने सोचा है कि ये घटनाएं क्यों होती हैं? या ये घटनाएं ज़्यादातर स्कूल-कॉलेजों में ही क्यों होती हैं? ऐसा क्यों होता है कि इन घटनाओं से जूझने वाले बच्चे ताउम्र इस सदमे को झेलते हैं। मेरे हिसाब से अपनी बात को खुलकर साझा ना कर पाने से ही इनकी संभावनाएं जन्म लेती हैं।
पहला प्यार, दण्डित होने का डर, अपराधी और अपमानित महसूस करना, बाकी साथियों से परीक्षाओं में पीछे रह जाना जैसी ये छोटी-छोटी बातें साझा ना होने पर यह बातें बच्चों के दिमाग में घर कर जाती हैं। यह बातें बच्चे इसलिए साझा नहीं कर पाते हैं क्योंकि उन्हें यह सिखाया ही नहीं जाता।
बच्चों की मन की बात जानने या उनसे उनकी बात साझा करवाने के लिए हम हम बस उनके सामने बैठ कर बातचीत करें, चर्चा करें, तो स्वयं ही उन्हें अपना विचार, अपने सवालात और अपनी राय रखने का दिल करने लगेगा।
यही कारण है कि बच्चों का रुझान विद्यालयों की तरफ ज़्यादा होता जाता है। आखिर हो भी क्यों ना, अब उनका ज़्यादातर वक्त विद्यालयों में अपनी उम्र वालों के साथ कुछ ना कुछ साझा करते हुए और आधी-अधूरी जानकारियां लेते हुए गुज़रता है।
ज़्यादातर घरों में बच्चों का पिता से एक अजीब तरह का नकरात्मक सम्बन्ध (Oedipus complex) होता है। यह इसलिए भी होता है क्योंकि पिता की जो छाया उनके सामने बनती है, वह उस व्यस्त इंसान की होती है जो उन्हें ज़्यादा समय नहीं देता, जो उनकी बिलकुल भी नहीं सुनता, जो उन्हें एक सिस्टम बताता है, जिसमें बेहतरी की कोई गुंजाईश नहीं रहती।
इससे बच्चों में अकारण विरोध करने की प्रवृत्ति से अपना अस्तित्व पाने की इच्छा जन्म लेती है। वे पिता द्वारा आरोपित उस सिस्टम का विरोध एक लंबी उम्र तक करते रहते हैं जो सिर्फ उनकी बचपन की नासमझी होती है। नतीजा यह होता है कि बड़े होकर उन्हें अपनी समझ की धारा प्रवाह पर विश्वास खत्म हो जाता है और वे परिस्थितियों से समझौता कर अपनी अगली पीढ़ी के लिए एक वैसा ही सिस्टम बनाते हैं जिसमें बेहतरी की गुंजाईश ना के बराबर हो।
इसलिए हम खुद ही हमारे कल और आज के बीच की डोर काटने के ज़िम्मेदार हैं। यह डोर टूटकर फिर कभी नहीं जुड़ पाती और जुड़ती भी है तो गांठ हमेशा के लिए रह जाती है। नतीजा होता है कभी ना खत्म होने वाला ‘जनरेशन गैप’।
ये जनरेशन गैप आगे जाकर कई रूप लेता है। इसी गैप के कारण हर क्षेत्र के साहित्य में ऐसे लुभावने चरित्र लिखे गए हैं जो कभी वनवास के नाम पर, तो कभी दूसरी परिस्थितियों के नाम पर माँ-बाप से दूर हो जाते हैं। सुपरमैन हो, स्पाईडरमैन हो, हैरी पॉर्टर हो, राम कृष्ण हो या एकीलीस की कहानी, सभी में उनका माँ-बाप से दूर होना जायज़ ठहराया गया है। इसलिए आज कल माँ-बाप को अपना अंतिम समय वृद्वाश्रम और सड़कों पर व्यतीत करना पड़ता है।
फ्रायड के अनुसार हमारा सम्पूर्ण जीवन व्यवहार बचपन में हमें दिखाई गई दुनिया पर निर्भर होता है। इस बात को मद्देनज़र रखते हुए और वर्तमान समयानुसार मेरी राय है कि सम्पूर्ण मूल शिक्षा की ज़िम्मेदारी माँ-बाप को लेनी चाहिए। जैसे,
ताकि वह वर्तमान, भूत, भविष्य के इंसान से परिचित हो।
बचपन से ही अगर हमें। 2 से अधिक भाषाएं आएं तो देश और दुनिया से हम कटा हुआ महसूस नहीं करेंगे। भाषाविज्ञान के ज़रिये हम आज जानते हैं कि हमारी जो समझ में आये हम सिर्फ उसे ही भाषा कहते हैं। भाषा सिर्फ हमारी जानी समझी ध्वनि ही है। हम अगर बचपन में ही ज़्यादातर ध्वनियां सुन चुके होंगे तो हमारी समझ इस दुनिया की अनिश्चित असीमितता के लिए शायद काफी होगी।
हमारे पास आज यह सुविधा है कि हम बच्चों की मोज़ार्ट, बीथोवन, पंडित रविशंकर, कुमार गन्धर्व, भीमसेन जोशी जैसे बेहतर कलाकारों से मित्रता करा दें। उन्हें महत्मा बुद्ध, महत्मा गाँधी, स्वामी विवेकानंद, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग, मदर टेरेसा जेसे चरित्रों से उनकी मित्रता करा दें। दोस्तोएवस्की, तोल्स्तोय, शेक्सपियर, अल्बर्ट कामस, सार्त्र , रसेल, परसाई, टेगौर, मार्क ट्विन, बर्नार्ड शा, ओस्कार वाइल्ड जैसे लेखकों से उनकी मित्रता करा दें। फेलिनी, बर्गमेन, कुरुसावा, चैप्लिन, रे, स्पीलबर्ग, स्कोर्सेसे, कपोला जेसे लोगों की नज़र से दुनिया दिखा दें। उन्हें सिर्फ ज़बानी नहीं बल्कि चित्रकला, मूर्तिकला जैसे भाषाई माध्यमों से परिचय करा दें।
बच्चों का स्वास्थ्य माता-पिता की प्रथम ज़िम्मेदारी होती है। पर उनमें स्वयं को स्वस्थ रखने के काबिल बनाने की ज़िम्मेदारी हम भूल जाते हैं। मेरे ख्याल से यह अहम ज़िम्मेदारियों में से एक है। हमें पता है कि पृथ्वी पर 70% तो पानी ही पानी है। सभी पौराणिक ग्रंथो में कयामत के दिन बाढ़ आने का ज़िक्र ही है। इस तरह बारिश के मौसम में छोटी-मोटी कयामतें तो आती ही रहती हैं।
क्यों ना हम बचपन में ही बच्चों को तैरना और गोताखोरी तो सिखा ही दें ताकि कयामत से बच कर वे अगले आदम और ईव हो सकें। इससे बच्चों में पानी का डर भी खत्म होगा और जलदेवता से पहचान भी बढ़ेगी। बच्चों को धीरे-धीरे ऊंचे स्थानों से परिचित कराकर हम उनमें पैदा होने वाले ऊंचाई के डर को खत्म कर सकते हैं। ऊंचे स्थानों पर जाने से उनमें कठिन परिस्थितियों में सांस लेने की क्षमता भी पैदा होगी। इस तरह वे कठिन परिस्तिथियों को बस एक हल्की चुनौती, एक खेल की नज़र से देखेंगे।
बच्चों में शुरू से ही स्पोर्ट्स मैन स्पिरिट हो तो मुझे लगता है कि उनके लिए समाज के व्यवहार को समझना ना तो मुश्किल होगा बल्कि वे इसे सकारात्मक ढंग से भी देख पाएंगे। अनिश्चितताओं में खेलते रहने से उनका नज़रिया बेहतर होगा लेकिन हमें उन्हें दोनों तरह के खेलों से अवगत करना होगा। जैसे,
बचपन में ये सब अनुभव देकर हम उनके आने वाले भविष्य की चिंता उनपर ही छोड़ सकते हैं। आज कल खेल स्वयं ही कैरियर है। किसी का करियर ही खेल हो या खेल ही करियर हो तो इससे बेहतर क्या हो सकता है।
इसके अलावा भी हम ऐसे कई मूलभूत कार्य हैं जिनके लिए हम बच्चों को स्वावलंबी बना सकते हैं। जैसे कपड़े फट जाने पर उन्हें स्वयं सिलना एवं बुनना बताना। ऐसे ही छोटे-मोटे काम, ताकि उनमें दूसरे कामों के लिए भी उतना ही सम्मान हो जितना वे स्वयं का करते हैं। निश्चित तौर पर मेरी इन बातों का विपक्ष भी मौजूद है।
हमारा देश किसानों का देश है। दिन भर मेहनत कर लोगों के पास इतना वक्त नहीं कि वे अपने बच्चों के लिए पर्याप्त वक्त नहीं निकाल पाते। हमारे देश में आज भी कई जगह इंटरनेट नहीं है और कई जगह है तो ना के बराबर है और जहां है वहां इसका उचित उपयोग बहुत कम लोगों को आता है।
ऐसे वातावरण में बच्चों को स्कूल भेजना ही शायद बेहतर उपाय हो। फिर भी जो निचले तबके से ऊपर के लोग हैं उनमें से कई अगर थोड़े से जागरूक हो जाएं तो वे अपने बच्चों की बेहतर शिक्षा का साधन स्वयं बन सकते हैं। ज़रा सोचिए कि अगर ऐसा हो तो स्कूल्स में कितनी सारी सीट्स खाली हो जाएंगी।
निचले तबके के बच्चों के लिए स्कूलों की फीस कम करनी होगी और बहुत से बच्चे बेहतर शिक्षा ले पाएंगे। बात सिर्फ इतनी है कि जिनके पास वक़्त है क्या वे अपने बच्चों की शिक्षा के लिए वक़्त निकालते हैं? बहुत व्यस्त लोग भी क्या अपने बच्चों के लिए दिन के 3 से 4 घंटे बचा नहीं सकते? और हमारी खुद की शिक्षा को जारी रखने का क्या? हमें खुद से भी सवाल पूछने चाहिए कि
लेकिन सारी ज़िम्मेदारी हमने खुद ले ली तो वे बड़ी-बड़ी कंपनियों के मालिक नाराज़ हो जायेंगे जिन्होंने पढाने की ज़िम्मेदारी अपने सर ले रखी है। उस लाखों एकड ज़मीन का क्या होगा जो इन्होंने सस्ते दामों में शहरों और गाँवों के बाहर ले रखी है। उन मंत्रियों–संतरियों का क्या होगा जिन्होंने इतने सारे फर्जी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों को मान्यता दे दी है।
मैं कहता हूं, हां उनका काफी नुकसान होगा। पर इस नुकसान से ज़्यादा मुझे परवाह हमारे बेहतर सुखद भविष्य की नहीं, बल्कि इन मंत्रियों, मालिकों की है जो इसीलिए भ्रष्ट हो गए कि उन्हें सिखाया गया कि दुनिया ऐसे ही चलती है। मैं उन लोगों से बस यह प्रार्थना कर सकता हूं कि आपकी स्कूल की जगह फ्रीलांसिंग एजुकेशन के कारण खाली होती है, तो उन जगहों पर लोगों को रहने के लिए जगह दें। आप की हर एक कक्षा की जगह में कम से कम एक परिवार आसानी से पल सकता है। आप वहां रेस्ट हाउस बनवा दें या धर्मशाला बनवा दे या किराए पर दें। आपके पास स्वयं कही ज़्यादा अच्छे उपाय होंगे पर कृपया शिक्षा से खिलवाड़ कर उसे इस तरह धन्धा ना बनाएं।
हो सकता है कि मेरी इन बातों को आदर्शवाद कहा जाए लेकिन बेहतरी की उम्मीद करना अगर आदर्शवाद है तो सभी का यही आदर्श हो। जब हम इस आदर्श की शिक्षा देंगे तब धीरे-धीरे हमारे मन में से यह बात निकल जाएगी कि पढ़ाई स्कूलों में नम्बर, ग्रेड लाने के लिए है या आडम्बर के लिए है।
शिक्षा बस व्यक्तित्व निर्माण के लिए होती है ताकि हम बाकी व्यक्तियों और समाज, देश के निर्माण में भी सहयोग कर सके और आगे बढ़ सके। देश की, समाज की ज़िम्मेदारी तो बहुत बड़ी है, कम से कम हम सब बस अपनी और अपने बच्चों की तो पूरी ज़िम्मेदारी लें। एक बेहतर भविष्य की कल्पना से आगे इसके निर्माण की शुरुआत तो हमारे घर से, माता-पिता और बच्चों में आपसी समझ बेहतर करने से होगी।
आपसी विश्वास होगा तो हम फिक्रमंद होने के बाद भी अपने बच्चों को पर्याप्त आज़ादी दें पायेंगे ताकि हम सभी स्वयं अपने जीवन का सही तैयारी के साथ अभ्यास कर सकें और नई-नई बातें खोज सकें।
पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि आज के युग में कलाकार, प्रयोग कर्मी और खिलाड़ी होना सम्पूर्ण शिक्षा का आधार होना चाहिये जैसा कि हम स्वयं ही एकदम शुरुआती शिक्षा में हुआ करते हैं। अगर ऐसा हो तो इस दुनिया का कल हम संवार सकते हैं। हम भले ही मान कर चलें कि मानव एक उद्देश्य लेकर पैदा होता है, फिर भी उसे सिखाना तो यही चाहिए कि वह स्वयं अपने उद्देश्य का निर्माण कर सकता है। तो फिर क्यों ना हम पूरी आज़ादी से इस इन्टरनेट युग में अपना और अपने बच्चों का सिलेबस स्वयं बनाएं।
अपने नाटक के प्रोड्यूसर और डायरेक्टर हम खुद ही बनें। शायद हम इस रंगमंच पर ऊपर वाले की कठपुतली मात्र हों पर अपना हिस्सा तो पूरी लगन से निभाकर बाकी कलाकारों और आने वाले कलाकारों की मदद कर इस थमे हुए नाटक को आगे बढ़ा सकें।
अब सोचिये, अगर हम सभी इस तरह का बचपना अपना लें तो फिर बढ़प्पन आने पर भी बचपन शायद कभी खत्म ही ना हो। “आओ हम सब पहन ले आईने, सबको सारे हसीं लगेंगे यहां”।
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