”सीसीएल कर्मचारियों की तनख्वाह तो निश्चित होती है। वे काम करें या न करें, सरकार से उन्हें हर माह 60-70 हजार रुपये की तनख्वाह मिल ही जाती है लेकिन हम संविदा कर्मचारियों को हर दिन के हिसाब से 300-350 रुपये का मेहनताना मिलता है। इसके अलावा न कोई अन्य भत्ता, न ही बीमा या फिर कोई अन्य सुविधा हमें नसीब होती है।” यह कहना है सीसीएल के एक संविदाकर्मी खलखू उरांव का।
सयाल क्षेत्र में कोयला खनन करने वाले संविदा कर्मचारी चरखू महतो कहते हैं, ”संविदा पर कार्यरत ज्यादातर मजदूरों के पास सेफ्टी किट के नाम पर कैप लाइट कंपनी की ओर से मिलती है। बाकी टोपी, जूते, मास्क आदि हमें खुद खरीदना पड़ता है। 160 से 170 रुपये में टोपी आती है और जूता 300-400 रुपये में आता है। ये चीजें तीन से चार महीने ही चल पाती हैं। सुपरवाइजर लोगों की ड्यूटी भी आठ घंटे की ही होती है लेकिन वे लोग अक्सर ऊपरी सतह से ही दो-तीन घंटे में लौट आते हैं। इसी वजह से जब कभी खदान में कोई दुर्घटना होती है, तो आप सुनियेगा कि उसमें ज्यादातर ऐसे मजदूर ही मारे जाते हैं, क्योंकि वही लोग खदान के तह में जाकर काम करते हैं।”
बता दें कि संविदाकर्मी किसी ठेकेदार के अधीन काम करते। इन्हें किसी तरह की बीमा या कंपनी पॉलिसी का लाभ नहीं मिलता। इनमें से कइयों ने खुद अपने खर्चे पर बीमा कर रखा है। सीसीएल की वर्ष 2019-20 की सालाना रिपोर्ट के अनुसार, इस संगठन में कुल 38,695 नियमित कर्मचारी कार्यरत हैं, जिन्हें संगठन की ओर से कई तरह की सुविधाएं दी जाती हैं, जबकि संविदा आधार पर अथवा दैनिक वेतनभोगी कर्मचारियों की संख्या इसके दोगुनी से भी अधिक है मगर उन्हें इन सुविधाओं का लाभ नहीं मिलता। बावजूद इसके वे कोयले के धूल और धुआं भरे वातावरण में अपनी जिंदगी को दांव पर लगाने को मजबूर हैं। उनका काम भी उतना ही जोखिम भरा है, जितना कि नियमित कर्मचारियों का।
”मैं पिछले तीन वर्षों से डायबीटिज से ग्रसित हूं, शुरुआती आरंभिक जांच सीसीएल क्लिनिक में ही करवा रहा था लेकिन कोई विशेष लाभ नहीं मिला। मेरी परेशानी बढ़ती गयी। मेरा पूरा शरीर सूजने लगा. सांस फूलने लगी. बदन में लहर और जलन होने लगी। मैं एक महीना अपने खर्चे पर भेल्लौर के हॉस्पिटल में भर्ती रहा। अब भी रोज मुझे इंसुलिन के दो इंजेक्शन लगते हैं। लीवर और पैंक्रियाज की भी समस्या है। हर महीने इलाज में करीब 10 हजार रुपये खर्च हो जाते हैं।”
वो आगे कहते हैं, “अब तक करीब डेढ़-दो लाख रुपये खर्च हो चुके हैं लेकिन सीसीएल संगठन द्वारा डायबीटिज को गंभीर बीमारी की श्रेणी में वर्गीकृत नहीं किया गया है, इसलिए कंपनी द्वारा मुझे इलाज का खर्च भी नहीं मिला है। पिछले आठ महीनों से लॉकडाउन और पैसों की कमी के चलते रांची के सदर हॉस्पिटल में इलाज करवा रहा हूं।”
यह कहना है सीसीएल के जलापूर्ति विभाग में कार्यरत चतुर्थवर्गीय कर्मचारी गुल मोहम्मद का, जिनके परिवार में कमानेवाले वह एकमात्र व्यक्ति हैं और खानेवाले कुल आठ लोग। कंपनी की ओर दो कमरों का मकान मिला हुआ है, जिसकी छत बरसात में चूती है। बिजली तो चौबीसों घंटे रहती है लेकिन सप्लाई का पानी तीन-चार दिन पर आता है और वो भी कई बार बिल्कुल काला।
बता दें कि टीबी (क्षय रोग, तपेदिक या ट्यूबरकुलोसिस) और मधुमेह में सीधा संबंध हैं। जिन लोगों को टाइप-2 मधुमेह होता है उनके शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कमजोर हो जाती है, इसलिए ऐसे रोगियों में टीबी संक्रमण की संभावना बढ जाती है। मधुमेह और टीबी से ग्रसित लोगों पर दवाइयों का असर भी कम होता है। इस वजह से ऐसे लोगों को मल्टी ड्रग रेजीस्टेंस-टीबी या एमडीआर-टीबी होने का खतरा भी काफी बढ जाता है। अत: मधुमेह रोगियों को टीबी न होने पर भी तपेदिक की जांच करानी चाहिए और टीबी के मरीजों को मधुमेह नहीं होने पर भी डायबिटीज की जांच करानी चाहिए।
झरिया कोलफील्ड के समीप रहने वाले स्थानीय निवासी एवं पत्रकार रजनीकांत कहते हैं, ”चतुर्थ वर्गीय नियमित कर्मचारियों की स्थिति भी कुछ खास बेहतर नहीं कहीं जा सकती है। उन्हें नियमित आय जरूर मिलती है लेकिन उनमें से ज्यादातर नशे की लत से ग्रसित होते हैं। उनकी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा ऐशो-आराम की जिंदगी जीने और नशा करने में खर्च हो जाता है। इसकी एक बड़ी वजह उनमें शिक्षा और जागरूकता का अभाव है।”
ये मजदूर सात से आठ घंटे जमीन से सैकड़ों किलोमीटर नीचे खदानों में काम करते हैं। वहां पर न्यूनतम तापमान, ऑक्सीजन की कमी, घुप्प अंधेरा और सन्नाटा होता है, जो कि बेहद भयानक व डरावना होता है। इस भय के माहौल का सामना करने के लिए मजदूर नशा करते हैं। यह नशा धीरे-धीरे उनके स्वास्थ्य के साथ-साथ उनके पारिवारिक और सामाजिक जीवन को भी लीलने लगता है।”
उल्लेखनीय है कि आधुनिक भारत का विकासवादी मॉडल जिस ऑद्योगिक और तकनीकी ढांचे पर टिका हुआ है, उसे विकासोन्मुख और प्रगतिशील बनाये रखने के लिए उर्जा के जितने भी स्रोत उपलब्ध हैं, उनमें से कोयला भी एक मुख्य स्रोत हैं. वर्तमान में कोयला भारतीय उद्योगों के रीढ़ की हड्डी बन चुका है।
कोयले की आवश्यकता विभिन्न कार्यों को संपादित करने के लिए की जाती है. इसकी उपयोगिता को देखते हुए ही इसे ‘काले हीरे’ की संज्ञा दी गयी है. कोयला खनन एक आधारभूत उद्योग है, जिस पर अन्य उद्योगों का विकास निर्भर करता है।
कोयला खनन कार्य से जुड़े श्रमिक अपने जीवन को दांव पर लगा कर धरती के गर्भ में छिपे इन काले हीरों को निकालने का कार्य करते हैं। इस दौरान अक्सर इन श्रमिकों के साथ आकस्मिक दुर्घटनाएं घटती रहती हैं, जो कि अक्सर संचार माध्यमों की सुर्खियां भी बनती हैं। बावजूद इसके इनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति बेहद चिंताजनक है।
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