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“कोरोना ने सिखाया ज़िंदगी वैसी नहीं, जैसा तुम गढ़ना चाहते हो”

मेरा नाम प्रिंस (अन्ना) है। बिहार के एक छोटे से शहर फारबिसगंज से हूं जो कि अंतरराष्ट्रीय सीमा भारत-नेपाल के समीप बसा है। हम चर्चा करेंगे वर्ष 2020 की जिसने कई किस्से-कहानियों की किताबें लिख दी हैं।

कोरोना वॉरियर्स में डॉक्टर, नर्स, मेडिकल स्टाफ, मेडिकल स्टोर्स, दूध वाले भैया, सब्ज़ी वाले भैया या चाचा जी, जेनरल स्टोर्स वाले अंकल, खाना पहुंचाने वाले डिलीवरी बॉय हो या हर घर का वह शख्स जिसने अपने घर वालों और आस-पड़ोस के लोगों का बखूबी साथ निभाया है। बात हम आज सब की करेंगे साथ ही उस वक्त की हम अपनी भी दास्तां बयां करेंगे।

जब पहली बार कोरोना जैसी महामारी का पता चला

हमें ज़रा सा भी एहसास नहीं हुआ था कि दुनिया को यह नई बीमारी हिला देगी। हां, जिस तेज़ी से कोरोना बढ़ रहा था उससे यह ज़रूर पता लग रहा था कि दुनिया पर कहर बरपाकर टूटेगा। हुआ भी वही। कोरोना ने भारत के साथ-साथ पूरी दुनिया पर कहर बरपाना शुरू कर दिया। जैसे लोग घरों में पंछियों और जानवरों को पिंजरों में कैद करते थे वैसे ही इंसान घरों में कैद हो गए थे।

सड़कें सांस ले रही थीं। ट्रैफिक सिग्नल की लाल-पीली-हरी बत्तियां बन्द हो चुकी थीं। कभी नहीं रुकने वाला रेल का पहिया थम सा गया था। सिनेमा घर के सामने लगने वाली लाइन अचानक गुम सी हो गई। चौक-चौराहों पर लगने वाली भीड़ भी कहीं गुम सी हो गई थी। कोरोना संकट के बीच हमारे समाज ने लंबा लॉकडाउन देखा है। महामारी के इस चुनौती के बीच हम सब घरों में रहने को मजबूर हुए हैं लेकिन इस मजबूरी ने जहां जीवन जीने के तरीके बदले हैं वहीं पुराने संबंधों के प्रति एक ऊर्जा को दोबारा पैदा किया है।

मुझे याद है कि फरवरी के तीसरे हफ्ते में जन्मदिन के वक्त हम थोड़ा सैर-सपाटा करने बंगलुरू से विशाखापट्टनम निकल गए। काफी मौजमस्ती हुई। विशाखापट्टनम टूर यादगार रहा। जैसे ही वापस आए अपनी कामकाजी दुनिया में, तो कुछ ही दिनों के बाद सुनने को मिला भारत में बहुत ही तेज़ी से कोरोना महामारी ने दस्तक दे दी है। गुज़रते दिनों के साथ इस महामारी से संक्रमित होने वाले लोगों की संख्या में काफ़ी बढ़ोतरी होती गई।

इसे देखते हुए हमारे ऑफिस ने अपने कर्मचरियों को घर में रहकर काम करने का आदेश जारी कर दिया। 14 मार्च 2020 से ही हम घर में रहकर काम करना शुरू कर दिए थे। वहीं हर दिन संक्रमितों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही थी। फिर देश में जनता कर्फ्यू लगा। उसके बाद सम्पूर्ण भारत में तालाबंदी लागू हो गया। कई महीनों तक देशवासी घरों में कैद हो गए। ज़रूरतमंदों को ज़रूरी सामान जैसे खाने-पीने की वस्तुएं हम खुद पहुंचा देते थे।

हम लोग ज़रूरतमंदों को यथा संभव मदद करने और उन तक चीज़ें पहुंचाने का पूरी कोशिश करते रहे। ईश्वर की कृपा से उन तक मदद पहुंचती भी रही।

मई-जून की गर्मी के बीच कोरोना का हाल

मई-जून का महीना था हम बंगलुरू में ही थे। तभी मेरे सबसे करीबी मित्र की मां की तबीयत बिगड़ गई। वह अस्पताल गईं तो डॉक्टर ने उनका पहले कोरोना टेस्ट कराया। उसके बाद उन्हें किसी एक रूम में रख दिया गया। किसी परिवार वालों से मिलने नहीं दिया गया। 2 दिन बाद टेस्ट रिपोर्ट आई तो उसमें उन्हें पॉज़िटिव बताया गया। फिर उन्हें दूसरे अस्पताल में शिफ्ट कर दिया गया।

घर वालों को सूचना मिलते ही यह खबर आग की तरह फैली और मोहल्ले की गलियों तक पहुंची। अब लोगों ने इनके परिवार का विरोध करना शुरू कर दिया। हालात यह हुए कि लोगों ने उन्हें अपने मोहल्ले और समाज से बाहर निकालने के लिए तरह-तरह का हथकंडा अपनाने लगा। जैसे कि मेरे मित्र का परिवार जान-बूझकर संक्रमित हुआ हो।

वहीं, लोगों के विरोध के बाद मजबूरन प्रशासन को मेरे मित्र के परिवारों को क्वारंटाइन पर भेजना पड़ा। वहीं मेरे मित्र और उनके परिवार के सदस्य ने तेरह रातें और 14 दिन कैसे बिताया उसको शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। ईश्वर धरती पर हैं यह हमने बहुत ही नज़दीक से अनुभव किया था। मेरे मित्र की मां का दो बार टेस्ट हुआ था। उनके दो बार पॉज़िटिव आने के बाद पूरे परिवार को क्वारंटाइन किया गया लेकिन उन सबका नेगेटिव आया।

चौदहवें दिन परिवार वालों को घर भेज दिया गया। सब घर आ गए थे लेकिन सिवाए मेरे मित्र की मां के जो ज़िंदगी और मौत के बीच लड़ रही थीं। इस लड़ाई में बखूबी से उनका साथ दे रहे थे डॉक्टर्स, नर्स या अन्य मेडिकल स्टाफ्स। साथ ही भगवान भी थे और आंटी जी इतनी बीमारी के बावजूद डटकर लड़ीं और जीतकर वापस आईं। जिस मोहल्ले और पड़ोसियों ने कभी उनके परिवार का विरोध किया था इस बार ढोल बाजे के साथ उनके स्वागत के लिए घंटों से खड़े रहे।

कोरोना काल ने अपने और अपने आसपास के लोगों  के बारे में सोचने का मौका दिया

याद कीजिए कोरोना से पहले की ज़िंदगी और बाद की ज़िंदगी में कितना अंतर आया है। पहले भागती-दौड़ती ज़िंदगी में किसी के पास हालचाल पूछने तक की फुर्सत नहीं थी। वहीं लॉकडाउन में घरों में रहने के कारण हमारे आपसी संबंधों में प्रेम भी पैदा हुआ है। रिश्तों की कद्र हुई है और हम अपनों के प्रति संवेदनशील भी हुए हैं। कई पुरानी बातों को भुलाकर हमने भाईचारा बढ़ाया है जिससे स्नेह व अपनत्व की डोर मज़बूत हुई है।

कोरोना जब आया तो वह हमसे बहुत दूर था। किसी दूसरे देश के खबरों की सुर्खियां बनती थी। फिर जब वह भारत आया, तो इस ताकत के साथ आया कि सब अपने-अपने घरों में दुबकने को विवश हो गए। कोरोना काल का अनुभव लोगों के लिए ऐसा अप्रत्याशित था, जो उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा। हमारी पीढ़ियों ने ऐसी कोई महामारी देखी भी नहीं कि उससे निपटने का कोई अनुभव हो।

ऐसे में सरकारों ने फैसले लिए। पहली बार सरकारों के फैसले राजनीतिक स्तर पर नहीं, बल्कि विशेषज्ञों से पूछकर लिए गए थे। इन फैसलों में ज़्यादा अहम बातें ये रही कि लोगों की जान किस तरह बचाई जाए? जिन लोगों के रोज़गार पर असर पड़ा उनकी आजीविका का बंदोबस्त कैसे किया जाए? जो लोग घर पर रहने को मजबूर हैं, उनके अकेलेपन को कम करने के लिए क्या किया जाए?

पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों में बहुत से लोगों ने कभी अदालत के माध्यम से, तो कभी प्रदर्शन कर अपने लोकतांत्रिक अधिकारों पर ज़ोर दिया। सरकारों पर दबाव बनाया गया। उनके फैसलों पर बहस हुई वह भी उनकी खामियों को सामने लाकर। सरकारों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए ज़रूरी बदलाव किए ताकि लॉकडाउन के बावजूद चुनाव होते रहें। लोगों को जहां तक संभव हो, घर की सुरक्षा में काम करने का मौका मिलता रहे।

हम जिस समाज में रह रहे हैं वह आर्थिक विकास पर आधारित समाज है। काम रहेगा तो नौकरी रहेगी, नौकरी रहेगी तो आमदनी रहेगी और आमदनी रहेगी तो ज़िंदगी अपने ढर्रे पर चलती रहेगी।

कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन ने इस संरचना को अस्त-व्यस्त कर दिया था। फिलहाल उसी संरचना को वापस लाने की कोशिश हो रही है लेकिन लॉकडाउन के अनुभवों ने हमें यह भी दिखाया है कि ज़िंदगी दूसरे तरीकों से भी चल सकती है। पर्यावरण सम्मत तरीके से। प्रकृति के दोहन के बदले, उसे बचाते हुए समाज का विकास हो सकता है।

लॉकडाउन के पहले दौर से ही मिला सबक

महामारी ने सामान बटोरने और पैसे खर्च करने की संस्कृति के बारे में सोचने का एक मौका दिया है। जब कहीं जाना ही नहीं तो यह लाखों की गाड़ियां किस काम की? नए कपड़े किस काम के? बटुए में संजो कर रखे क्रेडिट कार्ड किस काम के? चारों तरफ शांति, खाली सड़कें, दूध की दुकान पर अकेला बैठा दुकानदार और पतझड़ की वजह से गिरते हुए पत्तों से ढकी जा रहीं कतार में लगीं गाड़ियां।

कोरोना महामारी से लड़ने के लिए लगाई गई तालाबंदी मुझे सबसे ज़यादा अपनी सोसाइटी के पार्किंग लॉट में महसूस होती थी। बड़े अरमानों से खरीदी हुई लेकिन अब धूल फांकती अपनी हैचबैक को और उसके अगल-बगल खड़ी सभी मॉडलों की महंगी सेडान और एसयूवीयों को देखता हुआ मैं खड़ा अवाक रह जाता था।

यह तालाबंदी के शुरुआती दिन थे जब प्रतिबंध कड़ाई से लागू थे। लोगों को घरों से बाहर सिर्फ अति-आवश्यक काम के लिए ही निकलना था। सोसाइटी में सभी तरह के हेल्परों का आने पर रोक थी। लिहाज़ा गाड़ियों की सफाई करने वाले भी नहीं आते थे। मैं खुद कुछ दिनों के बाद पार्किंग में जा कर अपनी गाड़ी पर इकठ्ठा हो गए पत्तों को गिरा देता था और एक कपड़े से धूल झाड़ कर साफ कर देता था। इन गाड़ियों को देखकर मैं सोचता था कि लाखों रुपये खर्च कर इन्हें खरीदते समय क्या किसी ने सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब अच्छी खासी चलती हुई गाड़ी को हमें यूं अचानक छोड़ देना पड़ेगा?

सिर्फ गाड़ियां ही नहीं, महामारी ने सामान बटोरने और पैसे खर्च करने की आदतों के बारे में भी सोचने का एक मौका दिया। जब कहीं जाना ही नहीं तो यह लाखों की गाड़ियां किस काम की? हर कुछ दिनों पर खरीदे जाने वाले नए कपड़े और नए जूते किस काम के? दूसरों से प्रशंसा लेने के काम आने वाले सोने और हीरे-मोतियों के आभूषण किस काम के?

जब किसी को आपके घर आना नहीं तो घर की महंगी सजावटें किस काम की? जब सबसे ज़रूरी लक्ष्य स्वस्थ रहना, अपनी और अपनों की ज़िंदगी बचाए रखना ही है तो फिर घर पर बटोरकर रखा सारा अनावश्यक सामान किस काम का? या फिर करोड़ों की संपत्ति भी किस काम की? मैंने पढ़ा था जापान के मिनिमलिस्टों के बारे में जिनमें से कइयों के तो बेडरूम तक इतने नंगे होते हैं कि उनमें एक पलंग तक नहीं होता। मैं इन पर अचरज करता था लेकिन समझ नहीं पाता था।

तालाबंदी के दौरान मैं कुछ हद तक मिनिमलिस्ट संस्कृति के संदेश को समझ सका। उपभोक्तावाद हमें सामान बटोरने पर मजबूर करता है लेकिन अगर हम अपनी जीवन शैली की समीक्षा करते रहें तो परिग्रह से बच सकते हैं। मेरे लिए शायद यही महामारी का सबसे बड़ा संदेश है।

लॉकडाउन में हर किसी की अपनी मुश्किलें और अपना अनुभव रहा

लॉकडाउन ने पर्यावरण का बहुत भला किया था। हमें खुद के बारे में और अपनों के बारे में सोचने का मौका दिया। साथ ही उसने हंसी की दुनिया को भी काफी कुछ दिया है। कोरोना महामारी के बीच जब सारी दुनिया ठप हो गई, तो सोशल मीडिया पर हाहाकार के बीच कुछ लोग लगातार हंसी की फुलझड़ियां छोड़ रहे थे।

ऐसे में अपने ठहाकों से कोरोना के गम को कम करने वाले भी कोरोना वारियर्स थे। दुनिया भर की सरकारें लोगों से मिन्नतें कर रही थीं कि घर में रहिए, कहीं बाहर मत जाइए। बाहर गए तो वायरस फैलने का खतरा है। आपके लिए भी खतरा है और आप दूसरों के लिए भी खतरा बन सकते हैं। इन तमाम दिशानिर्देशों को लोगों के बीच पहुंचाने के लिए लाखों करोड़ों डॉलर खर्च किए गए होंगे।

इसी बीच, किसी ज्ञानी ने एक वाक्य से मानो गागर में सागर भर दिया हो। हो सकता है अपनी सोशल मीडिया टाइमलाइन को स्क्रॉल करते हुए आपकी नज़र भी उस पर पड़ी हो। यह लंबी चौड़ी भूमिका जिस वाक्य के लिए बांधी जा रही है, वह है, “या तो रहिए कुटिया में, वरना रहना पड़ेगा लुटिया में”। यह सुनकर इंसान एक पल हंसने के बाद ज़रूर सोचेगा कि उसे सोशल डिस्टेंसिंग और लॉकडाउन पर अमल करते हुए इसी दुनिया में रहना है, या फिर कुछ दिन लोटे में बिताने के बाद गंगा में विसर्जित हो जाना है।

कोरोना काल में इंसान की बेबसी को भला इससे बेहतर कौन बयां कर सकता है: “देख भाई, हम तो मछली हो गए हैं। हाथ लगाओगे डर जाएंगे, बाहर निकालो मर जाएंगे।” आप भी इस पर हंस सकते हैं लेकिन बात सोलह आने सच है। उधर लॉकडाउन में घर पर रहने वाले और बार-बार हाथ धोने को मजबूर पतियों का दर्द भी आपने शायद सुना हो। नहीं सुना तो सुन लीजिए, “सुनो जी, बार-बार हाथ धोने से अच्छा है कि साथ में दो-चार बर्तन भी धो दिया करो”। पति-पत्नी की सनातन नोकझोंक भी कोरोना स्टाइल में। जब पति ने पत्नी से पूछा कि मास्क क्यों नहीं पहना है तो पत्नी बोली, “मास्क पहन लिया, तो आपको कैसे पता चलेगा कि मैं मुंह फुला कर घूम रही हूं।”?

दूसरी तरफ किसी ने लिखा, “इतनी बार हाथ धोने पड़ रहे हैं कि पैसों की लकीर भी मिटती जा रही हैं लेकिन न धोएं, तो उम्र की लकीर भी मिट सकती हैं।” जो भी हो लेकिन आज का सच नीचे लिखा दोहा है।

“रहिमन वहां ना जाइए जहां जमा हों लोग। न जाने किस रूप में लगे कोरोना रोग।”

दोहे के बाद, एक शेर पर भी गौर फरमाएं:

“मेरा कत्ल करने की उनकी साज़िश तो देखिए, पास से गुज़रे और मास्क हटाकर छींक दिए।”

कमाल की बात यह है कि लॉकडाउन की वजह से सिमरन भी अपनी ज़िंदगी नहीं जी पा रही थी। वरना बाबूजी तो कब का कह चुके हैं, “सिमरन, जा जी ले अपनी ज़िन्दगी।” सिमरन कहीं नहीं जाएगी क्योंकि सोशल मीडिया पर उसे जो ज्ञान मिला है, वह कहता है, “भाड़ में चले जाना लेकिन भीड़ में कहीं ना जाना।”

इस कोरोना के चक्कर में न जाने कितने लोगों की शादियां रुक गई थी। जिनकी शादी हो भी रही थीं वह बस निटपाए जा रहे थे। अगर पूरे रस्मो-रिवाज़ के साथ शादी हो तो आज जीजाजी के जूते छिपाने के साथ-साथ मास्क छुपाई की रस्म भी करनी पड़ रही थी। यह परमसत्य भी मुझे सोशल मीडिया पर कोरोना के हंसगुल्लों से ही मिला है।

चीन पर गुस्सा भी भाई लोगों ने हंस-हंस कर ही निकाला। मसलन, “चाइना कितना तरक्की कर गया है, वरना किसने सोचा था कि एक दिन मौत भी चाइना से ही आएगी”। “अजीब देश है चाइना। टच वाला फोन बनाया, टच वाला टीवी बनाया, टच वाली घड़ी बनाई लेकिन यह क्या, अब टच वाली बीमारी भी बना दी।” या फिर “चीन वालों भगवान तुम्हें माफ नहीं करेगा, तुमने इंसान को चार लोगों के बीच उठने बैठने लायक भी नहीं छोड़ा”।

फेहरिस्त बहुत लंबी है

इस फेहरिस्त का लंबा होना अच्छी बात है। घर पर इंसान जब पिंजरे में पंछी की तरह कैद हो गए थे तब ऐसे जुमलों की बहुत ज़रूरत थी। जो चेहरे पर मुस्कान बिखेर सके। त्रासदी में जो हास्य फूटता है, उससे बड़ा मरहम कोई नहीं। यही हास्य हमें निराशा से निकालता है और इस काबिल बनाता है कि आप हालात का मुकाबला कर सकें। इसलिए अस्पताल में लोगों की सेवा करने वाले और संक्रमण को फैलने से रोकने वाले कोरोना योद्धाओं में आपको लोगों के बीच हंसी फैलाने वाले लोगों को भी शामिल करना होगा।

यह योद्धा भले ही गुमनाम हैं लेकिन हमारी मुस्कान में इनकी हिस्सेदारी है, खासकर इस मुश्किल दौर में। हमारी खुशियों में यह नींव की उस ईंट की तरह हैं जो किसी को दिखती नहीं लेकिन नींव है तो इमारत है। आखिर में इन्हीं कोरोना योद्धाओं की ज़ुबानी जीवन का सार भी सुन लीजिए: “अकेले आए थे, अकेले जाएंगे। अब यह बात बिल्कुल गलत साबित हो रही है, जो-जो संपर्क में आएंगे, वह सब जाएंगे”।

लोग कब तक घरों में बंद रहते? ढील मिली तो बाहर निकलने लगे, और बाहर निकले तो संकोच खत्म होने लगे। यह सोचने के लिए कि कुछ हफ्ते पहले सड़कें कैसी रही होंगी, आंखें मूंदने की ज़रूरत होती है। खोजकर पुरानी तस्वीरें निकालनी पड़ती हैं। कुछ ही हफ्तों में सबकुछ कितना बदल गया है लेकिन बदला ही नहीं है, हकीकत पर यादों की मोटी परत भी चढ़ा गया है।

हर अनुभव अनूठा होता है नहीं होता तो शायद उसे अनुभव ही नहीं कहते.

कोरोना ने जो अनुभव दिया है वह अनूठा होने के साथ-साथ अप्रत्याशित और अभूतपूर्व है। किसने सोचा था कि एक वायरस आएगा और हमारी सारी ज़िंदगी को तबाह और तहस-नहस कर जाएगा? डर का ऐसा माहौल पैदा कर जाएगा जिससे पार पाना मुश्किल हो जाएगा। हर समस्या का समाधान कर सकने का गुमान रखने वाले इंसान को बता जाएगा कि ज़िंदगी वह नहीं, जैसा तुम गढ़ना चाहते हो। किसे पता था कि एक वायरस के डर से पूरी कायनात ठहर जाएगी?

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