21वीं सदी का भारत जितनी तेज़ी से बदल रहा है, उतनी ही तेज़ी से बदल रही है लोगों की जीवन-शैली और उनकी ज़रूरतें। एक वक्त था जब जीने का मतलब सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान था पर बदलते वक्त के साथ-साथ जीने के मायने भी बदले और जीने के तरीके भी। बावजूद इसके कुछ है जो आज भी मानव जीवन का हिस्सा बना हुआ है और जिसे पूरी तरह मिटा पाना लगभग असंभव ही है। वह है ‘समस्या’।
‘समस्या’ ही व्यक्ति के जीवन की वह पहेली है, जो अपने अंदर नाना प्रकार की व्याधियों, विसंगतियों और विविधताओं को समेटे हुए है। इन्हीं विविधताओं में से एक है ‘बेरोज़गारी की समस्या’।
भारत की अर्थव्यवस्था का आकार पांच ट्रिलियन डॉलर का हो जाए सुनकर ही रोमांचक लगता है। सपना अच्छा है पर अभी सपना ही है। खैर, सपने सभी देखते हैं और देखने भी चाहिए। आम-जन का तो यही सपना है कि पढ़-लिखकर बढ़िया सी नौकरी मिल जाए, ताकि महंगाई भरे माहौल में जीवन की गाड़ी को पटरी पर आराम से चलाया जा सके।
जिस तरह बेरोज़गारी दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है, उसे देखकर कह सकते हैं कि इस पर पूरी तरह लगाम लगा पाना लगभग नामुमकिन सा ही लग रहा है। जारी आंकड़ों के अनुसार वित्त वर्ष 2017-18 में देश की बेरोज़गारी दर 6.1 प्रतिशत रही। जो कि वित्त वर्ष 1972-73 के बाद सर्वोच्च स्तर पर रही। माना बेरोज़गारी का मर्ज़ पुराना है पर इसका व्यापक इलाज तो ढूंढना ही होगा। आज पढ़ा-लिखा और काबिल युवा इस मर्ज़ का शिकार है। नतीजतन इससे ना सिर्फ उसके आत्मविश्वास में कमी आती है, बल्कि वह तनावग्रस्त जीवन जीने को भी बाधित हो रहा है।
बेरोज़गारी पर सरकार की क्या रही है प्रतिक्रिया
ऐसा नहीं है कि बेरोज़गारी की गंभीर समस्या से निज़ात पाने के लिए पिछली और वर्तमान सरकारों द्वारा कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। समय-समय पर सरकारें अपनी-अपनी योजनाओं को अभियानों का अमलीजामा तो पहनाती हैं पर बेरोज़गारी है कि मानती ही नहीं। दिन-ब-दिन यह महामारी का रूप ले रही है और इसकी रोकथाम के उपायों के साथ-साथ युवाओं के उज्जवल भविष्य के लिए सरकारों द्वारा जल्द ही व्यापक योजनाओं का कारगर क्रियान्वयन भी सुनिश्चित किया जाना अति आवश्यक है।
कामगारों की भी हालत खराब
तनाव का शिकार बेरोज़गार तो हैं ही साथ में ऐसा वर्ग भी है, जो कामगारों की श्रेणी में आता है। मसलन, कामगार है तो खुश होना चाहिए पर उनकी समस्याएं भी किसी बेरोज़गार व्यक्ति से कम नहीं हैं। चाहे व्यक्ति संगठित क्षेत्र में काम करता हो या असंगठित क्षेत्र में, हर एक की चुनौतियां भी अलग-अलग हैं, परिस्थितियां भी और समस्याएं भी।
हालांकि, संगठित क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों को चिकित्सा सुविधा, पेंशन, अवकाश, यात्रा मुआवज़ा आदि जैसे कई लाभ मिलते हैं पर वर्तमान में जिस तरह देश की अर्थव्यवस्था डामाडोल हुई है, वह चिंता का विषय है।
- आर्थिक मंदी से जूझ रहे व्यापार जगत को भारी नुकसान हुआ है।
- बड़े स्तर पर लोगों की नौकरियां जा रही हैं, जिसके चलते भारतीय कंपनियों में कार्यरत लोग तनाव से जूझ रहे हैं।
- कंपनियों को एम्पलॉई असिस्टेंस प्रोग्राम के तहत स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने वाली कंपनी Optum के अनुसार, मानसिक तनाव से ग्रस्त कर्मचारियों की डिप्रेशन संबंधी शिकायतें 2018 की तुलना में दोगुनी होकर 2019 में 16 फीसदी हो गई हैं।
किन वजहों से कर्मचारियों में बढ़ रहे हैं तनाव
- नौकरी में अतिरिक्त काम का दबाव,
- टार्गेट को प्राप्त करने की जद्दोजहद और नौकरी खोने का डर
ये कर्मचारियों के तनाव के मुख्य कारण हैं। वहीं जो लोग असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं, उनसे हो रहे शोषण से भी हर कोई भली-भांति परिचित है।
- मेहनत ज़्यादा दाम कम,
- काम ज़्यादा आराम कम
कुछ ऐसे ही हाल होते हैं, इस क्षेत्र में काम करने वाले कामगारों के।
चाहे असंगठित हो या संगठित क्षेत्र में काम करने वाला व्यक्ति या फिर वह जो काम की तलाश में दर-दर भटकता हो, सबकी जीवनशैली भले ही अलग-अलग हो पर कुछ है, जो सबके पास एक जैसा है और वह है समस्या और उस समस्या से जुड़ा तनाव।
कारण, अकारण इस तनाव का दंश तो सभी झेल रहे हैं परन्तु कामगारों और बेरोज़गारों की समस्या का समाधान हो, इसके लिए सरकार द्वारा योजनाओं के प्रचार के साथ-साथ इन योजनाओं का सशक्त आधार होना चाहिए, उसका सही रूप से क्रियान्वयन भी। तभी एक तनाव मुक्त और सुविधाओं से युक्त व्यक्ति सही मायनों में देश प्रगति में भागीदार बन सकेगा।
अंत में तो सबके लिए यही कामना है।
“सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत्”