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“महिला सुरक्षा के सवालों से आंख चुराकर देशहित की बात करना बेईमानी है”

आमतौर पर किसी भी अंतरराष्ट्रीय संस्था द्वारा देश की माली हालत में सुधार के आंकड़ों को सर आंखों पर रखने वाला देश, विश्व की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी की एक शाखा “थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन”, जो जनकल्याण से संबंधित मामलों की अध्ययन करती है की हलिया रिपोर्ट से अपना पल्ला झाड़ रहा है।

अक्सर यह देखने को मिलता है कि किसी बाहरी संस्था की रैंकिग में अगर हम पायदान में थोड़ा भी ऊपर खिसक जाएं तो देश खुशी से झूमने लगता है और सत्ताधारी राजनीतिक दल अपनी पीठ थपथपाने लगते हैं। देश को अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की प्रामणिकता और विश्वसनीयता पर इतना ही शक है तो अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के आंकड़ों से भी परहेज़ रखना चाहिए।

“थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन” ने अपनी ताज़ा रिपोर्ट में देश में बढ़ते यौन हिंसा के आंकड़ों के आधार पर यह बताया है कि भारत महिलाओं की सुरक्षा के मामले में सबसे असुरक्षित देश है और सभी देशों को पीछे छोड़ते हुए चौथे स्थान से अव्वल पायदान पर पहुंच गया है।

पहले देश की केंद्रीय महिला आयोग और अब राष्ट्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भी इस रिपोर्ट के आंकड़ों पर नाखुशी ज़ाहिर कर दी है। कमोबेश दोनों का ही कहना है कि विदेशी संस्थाओं ने निहित स्वार्थ के तहत यह रिपोर्ट जारी की है। इसलिए इन सर्वे को खारिज़ करना हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है। माफ करें, महिलाओं की सुरक्षा के सवाल की रिपोर्ट से पल्ला झाड़ना आपका देश का राष्ट्रीय कर्तव्य नहीं है। महिलाओं की सुरक्षा के सवालों को चाक-चौबंद करना आपका राष्ट्रीय कर्तव्य है।

“थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन” ने 26 जून को जारी अपनी रिपोर्ट में भारत को महिलाओं के लिए असुरक्षित कुछ आधारों के अनुसार माना है। फाउंडेशन के अनुसार भारत में महिलाओं तक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच, डिस्क्रिमिनेशन, सांस्कृतिक परंपरा, सेक्शुअल वायलेंस, नॉन सेक्शुअल वायलेंस, मानव तस्करी महिलाओं के लिए असुरक्षा का माहौल बनाता है। इनमें अगर सिर्फ हेल्थ केयर और सेक्शुअल वायलेंस को ही लें तो सारी कलई अपने आप खुल जाएगी।

दैनिक जैविक आवश्यकता की वस्तु सैनटरी पैड की पहुंच की मात्र 11 फीसदी महिलाओं तक है अन्य स्वास्थ्य सेवाओं पर बहस तो दूर की कौड़ी लाने के बराबर है। हर रोज़ दैनिक अखबारों में कमोबेश 15 से 20 खबरें महिलाओं के साथ हिंसा की ही होती है।

चलिए आपको “थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन” की रिपोर्ट चुभती है पर रोज़ अखबारों में यौन हिंसा की खबरों में होती वृद्धि से आप क्या निष्कर्ष निकालेंगे, खासकर तब, जब इस तरह की घटनाओं से परिवार की बहू-बेटियां भी रोज़ाना रूबरू हो रही हो?

अव्वल मुस्लिम देशों में महिलाओं की स्थिति से अपने देश की महिलाओं की स्थिति को बेहतर बताने की सुनियोजित कोशिश कई मेम बनाकर सोशल मीडिया पर ज़रूर हो रही है। जो विषय की गंभीरता से, एक बायनरी बनाकर ध्यान भटकाने के लिए काफी है।

या फिर आप भी सोशल मीडिया के उन सवाल पूछने वालों की जमात में होंगे कि कठुआ कांड पर बयानबाज़ी और कैंडल मार्च करने वाले लोग मंदसौर पर चुप क्यों हैं? इस तरह के सवालों से यह साबित करने की कोशिश हो रही है कि यौन हिंसा की यह घटना अधिक विभत्स है पहले वाली कम विभत्स थी। समझने की ज़रूरत यह है कि बलात्कार की हर घटना चाहे वह कोई भी हो यही बताती है कि कठोर कानून से भी कुछ ठीक नहीं हुआ, भीड़ से भी कुछ ठीक नहीं हुआ। तो फिर ये सब ठीक कैसे हो सकता है?

इस सवाल का समाधान “तू कौन? मैं खामखां” से नहीं हो सकता है। इस सवाल का जवाब हमें हर इंसान में पल रही तथाकथित पुरुष मानसिकता से पूछना होगा। बलात्कारी हमारे समाज का ही आदमी है, वह देखता है कि हम सब अपने घरों में, समाज में लड़की की स्वतंत्र हैसियत, आज़ादी और स्वीकृति को स्वीकार नहीं करते हैं। आधी आबादी जब घरों में ही सुरक्षित नहीं है तो समाज में कैसे रह सकती है?

बलात्कारी यह भी देखता है और जानता है कि आहत समाज थोड़ी देर हल्ला मचा कर शांत हो जाएगा और सबकुछ जैसा है वैसा ही हो जाएगा। मौजूदा दौर में समाज और हम बलात्कारी को धर्म और जाति की हैसियत से भी आंकने लगे हैं। चूंकि कानून ने अपनी असर्मथता और सरकारों ने अपनी ज़िम्मेदारी से कन्नी काट ली है तो अगर बलात्कारी को फांसी देना ही है तो पहले समाज और हम अपने भीतर छिपे पुरूष के अंहकार को फांसी दे। प्रतिरोध का मोमबत्ती मार्च इंडिया गेट पर नहीं, हमको और समाज को अपने अंदर जलाना होगा। जब तक मोमबत्तियां भीतर भी कुछ नहीं जलाती तब तक रौशनी नहीं, धुआं उगलती रहेगी।

भारत में महिलाओं से जुड़े तमाम सवालों की हकीकतों से आंखें चुराकर हम कहीं नहीं पहुंच सकेंगे। देश की
इज्ज़त के साथ-साथ समाज में आधी आबादी के सवालों से आंख चुराना बेमानी है।

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